बॉलीवुड: एक कॉन्ट्रैक्ट और मिली बड़ी पहचान, फिर भी सुशील कुमार को हमेशा 'सुख लगा इक ढलती छांव'

एक कॉन्ट्रैक्ट और मिली बड़ी पहचान, फिर भी सुशील कुमार को हमेशा सुख लगा इक ढलती छांव
फिल्म इंडस्ट्री के हर दौर में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं जो चमक-दमक से नहीं, बल्कि अपने सादगीभरे अंदाज से दर्शकों के दिलों में उतर जाते हैं। 1960 के दशक की बात करें तो उस वक्त बड़े सितारे फिल्मों के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन एक मासूम सा चेहरा पर्दे पर आया, जिसने बिना किसी शोर-शराबे के अपनी गहरी छाप छोड़ी। वह चेहरा था सुशील कुमार का...मुंबई की एक चॉल से निकलकर फिल्मी पर्दे तक का उनका सफर काफी प्रेरणादायक है। उनकी 'धूल का फूल', 'काला बाजार' और खासकर 'दोस्ती' जैसी फिल्मों को आज भी पसंद किया जाता है। उनके करियर में सुनहरा मोड़ उस वक्त आया, जब उन्हें राजश्री प्रोडक्शंस से तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट ऑफर हुआ, जो उस दौर में हर उभरते कलाकार का सपना हुआ करता था।

नई दिल्ली, 3 जुलाई (आईएएनएस)। फिल्म इंडस्ट्री के हर दौर में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं जो चमक-दमक से नहीं, बल्कि अपने सादगीभरे अंदाज से दर्शकों के दिलों में उतर जाते हैं। 1960 के दशक की बात करें तो उस वक्त बड़े सितारे फिल्मों के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन एक मासूम सा चेहरा पर्दे पर आया, जिसने बिना किसी शोर-शराबे के अपनी गहरी छाप छोड़ी। वह चेहरा था सुशील कुमार का...मुंबई की एक चॉल से निकलकर फिल्मी पर्दे तक का उनका सफर काफी प्रेरणादायक है। उनकी 'धूल का फूल', 'काला बाजार' और खासकर 'दोस्ती' जैसी फिल्मों को आज भी पसंद किया जाता है। उनके करियर में सुनहरा मोड़ उस वक्त आया, जब उन्हें राजश्री प्रोडक्शंस से तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट ऑफर हुआ, जो उस दौर में हर उभरते कलाकार का सपना हुआ करता था।

सुशील कुमार की जिंदगी किसी फिल्मी पटकथा से कम दिलचस्प नहीं है। उनका जन्म 4 जुलाई, 1945 को कराची में एक सिंधी परिवार में हुआ था। देश के बंटवारे के वक्त उनका परिवार हिंदुस्तान आ गया, उस वक्त उनकी उम्र ढाई साल थी। उनका परिवार पहले गुजरात के नवसारी शहर में रहने लगा, लेकिन यहां बिजनेस कुछ खास नहीं चल सका, जिसके बाद 1953 में वह मुंबई के महिम इलाके में चले गए। यहां उनके दादाजी को बिजनेस में बड़ा घाटा हुआ और वह दिवालिया हो गए। पूरा परिवार मुंबई की चॉल में रहने लगा।

इस दौरान उनके पिता और दादा दोनों की मृत्यु हो गई, और सुशील कुमार की मां उन्हें और उनके दो भाई-बहनों को लेकर उनकी मौसी के यहां चेम्बूर इलाके में चली गई। यहां उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। आर्थिक तंगी के चलते उनकी मां ने उन्हें फिल्मों में काम करने भेजा करती थीं। उन्होंने बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट कई फिल्मों में काम किया, जिनमें 'फिर सुबह होगी', 'काला बाजार', 'धूल का फूल', 'मैंने जीना सीख लिया', 'श्रीमान सत्यवादी', 'दिल भी तेरा हम भी तेरे', 'संजोग', 'एक लड़की सात लड़के', 'फूल बने अंगारे', और 'सहेली' जैसी फिल्में शामिल हैं।

इस दौरान राजश्री प्रोडक्शंस के मालिक ताराचंद बड़जात्या एक बंगाली फिल्म 'लालू-भुलू' का हिंदी रीमेक बनाने की सोच रहे थे। फिल्म का नाम 'दोस्ती' रखा गया, और उन्हें इसमें दो युवा लड़के चाहिए थे। उसी वक्त उनकी बेटी राजश्री ने अपने पिता को सुशील कुमार का नाम सुझाया। उन्होंने 'फूल बने अंगारे' में सुशील का काम देखा था और उनके अभिनय से काफी प्रभावित हुई थीं।

बेटी के कहने पर ताराचंद बड़जात्या ने अपनी एक टीम के सदस्य को फिल्म के ऑफर के साथ सीधे सुशील के घर भेजा। उस जमाने में किसी प्रोडक्शन हाउस से कॉन्ट्रैक्ट मिलना बहुत बड़ी सफलता मानी जाती थी, लेकिन राजश्री ने उनके साथ तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया और वो भी हर महीने 300 रुपए वेतन पर।

यह रकम बेशक आज के समय के मुताबिक बहुत मामूली लग रही हो, लेकिन उस वक्त यह बड़ी रकम मानी जाती थी। सुशील को एक तयशुदा आमदनी मिलने लगी। फिल्मों में काम करना पहले जहां उनकी मजबूरी थी, वहीं धीरे-धीरे मौका बन गया।

'दोस्ती' फिल्म जब रिलीज़ हुई, तो बॉक्स ऑफिस पर हिट हो गई। इस फिल्म ने उन्हें एक नई पहचान दी। दर्शकों ने माना कि सुशील ने बिना किसी शोर-शराबे के इंडस्ट्री में और लोगों के दिलों में अपने अभिनय के दम पर जगह बनाई है। राजश्री प्रोडक्शंस ने उन्हें और भी फिल्मों में काम दिया। इस दौरान उनकी दोस्ती एक्टर सुधीर कुमार से हुई। लोगों ने दोनों की जोड़ी को काफी सराहा, लेकिन जब सुधीर कुमार को एमवीएम प्रोडक्शन से मद्रास में फिल्म 'लाडला' का ऑफर मिला, तो उन्होंने राजश्री का कॉन्ट्रैक्ट तोड़ दिया।

इसका असर सुशील कुमार के करियर पर भी पड़ा। राजश्री ने उनके साथ भी अगली फिल्म बनाने का काम बंद कर दिया। जब ये सब हो रहा था, उस वक्त सुशील मॉस्को में 'दोस्ती' फिल्म के इंटरनेशनल चिल्ड्रेन फिल्म फेस्टिवल में शिरकत करने गए थे। वहां उन्हें जो सम्मान मिला, उसने उनके आत्मविश्वास को और भी मजबूत कर दिया। हालांकि यह अफसोस जरूर रहा कि सुधीर के जाने की वजह से उनकी अगली फिल्म रुक गई।

इसके बाद सुशील ने फिल्मों को धीरे-धीरे अलविदा कहा और अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया। उन्होंने जय हिंद कॉलेज से बी.ए. किया और कुछ समय बाद उन्हें एयर इंडिया में फ्लाइट परसर की नौकरी मिल गई। 1971 से 2003 तक उन्होंने नौकरी की और दुनिया के तमाम देशों की सैर की। वह 1973 में देव आनंद की फिल्म 'हीरा पन्ना' में एक सीन में एयर होस्टेस के तौर पर नजर आए थे।

इसके बाद वह गुमनामी की दुनिया में खो गए। 2014 में रेडियो कार्यक्रम 'सुहाना सफर विद अन्नू कपूर' में सुशील कुमार को लेकर सवाल किया गया था। उनसे जुड़ी अफवाहों की सच्चाई भी जाननी चाही थी। इसमें ही उनकी जिंदगी के तारों को छेड़ा गया। इस शो के लिए रिसर्च करने वाले शिशिर कृष्ण शर्मा ने उनसे बकायदा मुलाकात कर घंटों बात की। इस दौरान सुशील कुमार ने बताया कि ‘दोस्ती’ में निभाया उनका चरित्र काफी हद तक उनकी असल जिंदगी से मेल खाता था। अपने किरदार 'रामनाथ' की ही तरह उन्होंने भी बचपन में भीषण गरीबी और दु:ख देखा और इसलिए फिल्म के एक गाने की पंक्तियां- “सुख है इक छांव ढलती, आती है जाती है, दु:ख तो अपना साथी है” उन्हें अजीज हैं।

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Created On :   3 July 2025 2:40 PM IST

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