देश में है 16 महिला काज़ी , निकाह केवल एक ने करवाया, कहना पड़ा- मर्द काज़ी ऐसा क्या पढ़ते हैं जो हम नहीं पढ़ सकतीं

देश में है 16 महिला काज़ी , निकाह केवल एक ने करवाया, कहना पड़ा- मर्द काज़ी ऐसा क्या पढ़ते हैं जो हम नहीं पढ़ सकतीं

Anita Peddulwar
Update: 2019-09-06 07:35 GMT
देश में है 16 महिला काज़ी , निकाह केवल एक ने करवाया, कहना पड़ा- मर्द काज़ी ऐसा क्या पढ़ते हैं जो हम नहीं पढ़ सकतीं

डिजिटल डेस्क,मुंबई। अल निकाह मिन सुन्नती, फमन रग़िबा मिनसुन्नति.....निकाह का खुतबा पढ़ते हुए महिला काज़ी हाकिमा खातून ने इजाब कुबूल करवाया। मौक़ा था हाल ही में मुंबई के शेमॉन अहमद और कोलकाता की माया राचेल के निकाह का। जैसे ही शेमॉन ने कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है बोला तो अगले ही पल उनका नाम इतिहास में दर्ज हो गया। प्रगतिशील तबके ने बेशक इसका स्वागत किया लेकिन यह एक भी मुस्लिम तंज़ीम या संगठन को स्वीकार न हुआ। इस वक्त देश में 16 महिला काज़ी हैं। इन्हें दारूल उलूम ए निसवां की ओर से दो साल की ट्रेनिंग दी गई है। लेकिन 16 में से निकाह केवल एक महिला काज़ी हाकिमा खातून ने ही करवाया है। वे कहती हैं- जब कुरान-हदीस में औरतों द्वारा निकाह पढ़ने की मनाही नहीं है तो मर्द काज़ियों को क्या दिक्कत है।

निकाह में कुछ शब्द ही तो पढ़ने हैं, काज़ी ऐसा क्या पढ़ता है जो औरतें नहीं पढ़ सकती हैं। इस आंदोलन की मुखिया ज़किया सोमन के अनुसार उन्होंने अमेरिका की इमाम और काज़ी डॉ. अमीना वदूद से प्रभावित होकर भारत में इसकी जंग शुरू की। सोमन के अनुसार पिछली कई पीढ़ियों के ज़माने से मर्द काज़ी चले आ रहे हैं, हमने उनके वजूद को चुनौती दी है, जो कि आसान काम नहीं है। बता दें कि शेमॉन की बीवी माया ब्रिटिश हैं। उसने महिला काज़ियों पर अखबार में एक स्टोरी पढ़ी थी तो उसकी ज़िद थी कि वह महिला काज़ी से ही निकाह पढ़वाएगी। ताकि लोग जान सकें कि महिलाएं भी निकाह पढ़वा सकती हैं। 

40 वर्षीय हाकिमा के मुताबिक शेमॉन और माया विदेश से आए थे, उनके लिए यह मायने नहीं रखता है कि निकाह कौन पढ़ रहा है। लेकिन बाकी को इस सोच को अपनाने में अभी वक्त लगेगा। हाकिमा के अनुसार निकाह के लिए कई फोन आते हैं, लेकिन लोग परिवार और समाज के दबाव में आ जाते हैं कि महिला काज़ी निकाह पढ़ेंगी तो कहीं निकाह अवैध न हो जाए।

महिलाएं ही काज़ी बन जाएं तो बदनीयती पर लगाम लगेगी

महिला काज़ी नूरजहां का कहना है कि काज़ी हमारी सुनने को तैयार नहीं। हम बजाय इतने बड़े समाज को बदलें, इससे अच्छा है कि निकाह, तलाक और खुला में अहम भूमिका निभाने वाले काज़ी की जगह हम महिलाएं ही काज़ी बन जाएं। कम से कम कुछ काज़ियों की बदनीयती पर लगाम तो लग सकेगी।

Tags:    

Similar News