समाज: पुण्यतिथि विशेष हिंदू एकता के प्रणेता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, जिन्होंने बदली राष्ट्र की दिशा

नई दिल्ली, 20 जून (आईएएनएस)। नागपुर के एक साधारण ब्राह्मण परिवार में 1 अप्रैल, 1889 को जन्मे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और हिंदू संगठन के क्षेत्र में एक युग-निर्माता थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) संस्थापक के रूप में उनकी पहचान आज भी राष्ट्रभक्ति और अनुशासन के प्रतीक के रूप में जीवित है। उनकी जिंदगी ऐसी घटनाओं से भरी पड़ी है, जो उनके अडिग साहस, देशप्रेम और संगठन कौशल को दर्शाती हैं।
'डॉक्टरजी' के नाम से विख्यात केशव बलिराम हेडगेवार का बचपन ही उनके क्रांतिकारी स्वभाव की झलक देता है। जब 1897 में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की 60वीं वर्षगांठ पर स्कूल में मिठाइयां बांटी गई, तब मात्र आठ वर्ष की आयु में बालक केशव ने इसे गुलामी का प्रतीक मानकर कूड़े में फेंक दिया। यह छोटी-सी घटना ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनकी मुनादी थी। यही नहीं, 1908 में स्कूल में एक अंग्रेज इंस्पेक्टर के दौरे के दौरान उन्होंने सहपाठियों के साथ 'वंदे मातरम्' का नारा लगाया, जिसके चलते उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया गया। इस घटना ने उन्हें निर्भीक और देशभक्त बनाया।
हेडगेवार ने कोलकाता के मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की पढ़ाई पूरी की, लेकिन उनका लक्ष्य कभी डॉक्टरी करके धन कमाना नहीं था। वहां रहते हुए वे अनुशीलन समिति और 'युगांतर' जैसे क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े। केशब चक्रवर्ती के छद्म नाम से उन्होंने काकोरी कांड जैसे क्रांतिकारी अभियानों में हिस्सा लिया। हालांकि, बाद में उन्हें लगा कि भारत जैसे विशाल देश में सशस्त्र विद्रोह से स्वतंत्रता संभव नहीं है। यह विचार उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बना।
डॉ. हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को विजयदशमी के दिन नागपुर में आरएसएस की नींव रखी। उनका उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना, उसमें एकता और राष्ट्रीय चेतना जागृत करना था, ताकि भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान को सशक्त किया जा सके। उनका मानना था कि समाज में एकता और देशभक्ति की भावना जगाए बिना स्वतंत्रता का लक्ष्य अधूरा रहेगा। विश्व के सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन आरएसएस की शाखा पद्धति उनके इस दृष्टिकोण का परिणाम थी। शाखा पद्धति के जरिए उन्होंने स्वयंसेवकों को संगठित किया, जो आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। हेडगेवार स्वयंसेवकों के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाते थे, उनके घर जाते और परिवारों को जोड़ते, जिससे संगठन का आधार मजबूत हुआ।
कांग्रेस से उनका जुड़ाव भी रहा, लेकिन वैचारिक मतभेदों के चलते उन्होंने अपने रास्ते अलग किए। 1920 में नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा, जो उस समय पारित नहीं हुआ। 1930 में गांधीजी के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने व्यक्तिगत रूप से हिस्सा लिया और 9 महीने जेल में रहे।
21 जून, 1940 को नागपुर में उनका निधन हुआ, लेकिन उनके विचार आज भी लाखों स्वयंसेवकों को प्रेरित करते हैं। अपनी अंतिम चिट्ठी में उन्होंने गुरु गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी चुना था।
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Created On :   20 Jun 2025 10:39 AM IST