हर मुस्कान की कहानी: तस्वीरों में बदलती ज़िंदगियाँ

- लेखक: ममता कैरोल, वरिष्ठ उपाध्यक्ष और क्षेत्रीय निदेशक – एशिया, स्माइल ट्रेन
- फोटोग्राफर: कोमल बेदी सोहल
- “कला वास्तविकता को प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण नहीं है, बल्कि उसे आकार देने वाला हथौड़ा है।” — बर्टोल्ट ब्रेख्त I
नई दिल्ली, २३ अक्टूबर २०२५: कला ने हमेशा हमारी दुनिया को समझने का तरीका गढ़ा है — कभी आईना बनकर और कभी हमें नए नज़रिए से देखने को प्रेरित कर। उसकी शक्ति भावनाओं को जगाने, परंपराओं को चुनौती देने और कहानियाँ सुनाने में है। यही कारण है कि कला सिर्फ रचनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि एक असरदार सामाजिक औज़ार भी बन गई है।
आज दृश्य कहानी कहने की शक्ति को सिर्फ गैलरी या स्टूडियो तक सीमित नहीं रखा जा रहा, बल्कि इसे नीति, स्वास्थ्य और समुदाय जैसे क्षेत्रों में भी अपनाया जा रहा है।
सहानुभूति से देखने की कला
जब फोटोग्राफी को सहानुभूति की दृष्टि से देखा जाता है, तो यह केवल देखने का नहीं, बल्कि समझने का माध्यम बन जाती है। जब हम क्लेफ्ट (कटे होंठ और तालू) जैसी कहानियाँ कैमरे में कैद करते हैं, तो यह सिर्फ एक चेहरा नहीं दिखाती — यह साहस, भावना और इंसानियत को उजागर करती है।
ऐसी तस्वीरें चिकित्सा से जुड़े लेबल्स को पीछे छोड़कर व्यक्ति की असली पहचान को सामने लाती हैं। यह दृष्टि भेदभाव को तोड़ती है, कलंक को चुनौती देती है, और उन दिलों तक पहुँचती है जहाँ शब्द नहीं पहुँच पाते।
कहानियाँ जो ख़ामोशी को तोड़ती हैं
अक्सर चिकित्सा की भाषा तकनीकी और ठंडी लगती है — जो बीमारी के अनुभव और समाज की समझ के बीच एक दूरी पैदा कर देती है। दृश्य कहानी कहने का उद्देश्य उस दूरी को मिटाना है। एक तस्वीर स्पष्टीकरण नहीं देती — वह ‘दिखाती’ है।
एक तस्वीर में एक साथ मौन, शक्ति और संवेदनशीलता समाई होती है। वह हमें सिर्फ समझने के बजाय ‘महसूस’ करने को आमंत्रित करती है — और यही परिवर्तन की शुरुआत है।
क्लेफ्ट से जन्मे बच्चों के मामले में यह और भी ज़रूरी हो जाता है। यह कहानी केवल एक स्थिति के बारे में नहीं, बल्कि पूरे व्यक्तित्व के बारे में होती है। हर तस्वीर एक वकालत है — हर मुस्कान, सम्मान का हक़दार चेहरा है।
दिखाई देना क्यों ज़रूरी है
भारत में हर साल 35,000 से अधिक बच्चे क्लेफ्ट के साथ जन्म लेते हैं। इलाज संभव है, लेकिन अनेक परिवार या तो अनजान हैं, या असमंजस में, या फिर उन्हें उचित समय पर देखभाल तक पहुँच नहीं मिलती।
यह सिर्फ चिकित्सकीय नहीं, सामाजिक चुनौती भी है। अंधविश्वास, चुप्पी और कलंक बच्चों और उनके परिवारों को अलग-थलग कर देते हैं। बिना इलाज के, बच्चों को खाने, बोलने, सुनने और साँस लेने में कठिनाइयाँ होती हैं — और समाज में उनका मज़ाक उड़ाया जाता है।
लेकिन यह बच्चे कमज़ोर नहीं होते — उन्हें बस एक निष्पक्ष मंच चाहिए, जहाँ वे अपनी पूरी क्षमता के साथ चमक सकें। यह हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि हम ऐसा समाज बनाएँ जहाँ वे सम्मान और समान अवसर के साथ जीवन जी सकें।
धीरे-धीरे, पर सार्वजनिक रूप से बदलाव
परिवर्तन हमेशा किसी बड़े अभियान से शुरू नहीं होता। कभी-कभी यह एक साधारण तस्वीर से शुरू होता है — एक सच्चाई को उजागर करने वाले पल से। स्वास्थ्य जागरूकता हमेशा नीतियों से नहीं, कहानियों
Created On :   24 Oct 2025 4:26 PM IST











