नटखट नरेन्द्र से महापुरुष बनने तक ऐसा रहा स्वामी विवेकानंद का सफर

नटखट नरेन्द्र से महापुरुष बनने तक ऐसा रहा स्वामी विवेकानंद का सफर

Bhaskar Hindi
Update: 2018-01-11 14:08 GMT
नटखट नरेन्द्र से महापुरुष बनने तक ऐसा रहा स्वामी विवेकानंद का सफर

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। हर साल 12 जनवरी को पूरे भारतवर्ष में युवा दिवस मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद जयंती के अवसर पर यह दिन देश के हर कोने में सेलिब्रेट किया जाता है। इस वर्ष स्वामी विवेकानंद की 155वीं जयंती है। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। नरेन्द्र बचपन से ही तीव्र और कुशाग्र बुद्धि के थे। गुरू रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा लेने के बाद उनकी इस प्रतिभा में और निखार आया। अपने छोटे से जीवन में वे देश और विश्व के लिए कुछ ऐसी अनमोल चीजें छोड़ गए, जिनके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।



नरेन्द्र का बचपन
नरेन्द्र का जन्म समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता विश्वनाथ समाज में काफी प्रभावशाली व्यक्ति थे। वे एक वकील भी थे। नरेन्द्र की मां भुवनेश्वरी भी एक मजबूत और ईश्वरीय मन के साथ संपन्न एक महिला थी। माता-पिता के प्रभावशाली व्यक्तित्व का असर नरेन्द्र पर भी पड़ा और वे बचपन से ही बेहद कुशाग्र रहे।

उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ और पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा का वाचन होता था। नरेन्द्र इन कथाओं को बड़े चाव से सुनते थे। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये।

बचपन में नरेन्द्र हर किसी से यह सवाल भी पूछते रहते थे कि "क्या आपने भगवान को देखा है? "क्या आप मुझे भगवान से मिला सकते हैं?" नरेन्द्र के इन सवालों पर लोग मौन हो जाया करते थे।

स्कूल से लेकर कॉलेज तक उत्कृष्ठ छात्र रहे नरेन्द्र 


नरेन्द्र बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में होनहार थे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन स्कूल से लेकर कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज तक उन्होंने पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। अपने विषयों के साथ-साथ उन्होंने हिंदु धर्मग्रंथों से लेकर डेविड ह्यूम, जोहान गॉटलीब फिच और हर्बर्ट स्पेंसर के पश्चिमी दर्शन, इतिहास और आध्यात्मिकता का भी काफी अध्ययन किया। वे बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के साथ-साथ शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने में भी रूची रखते थे। वे खेल, जिमनास्टिक और कुश्ती में बराबर भाग लेते रहते थे। पश्चिम दार्शनिकों के अध्यन के साथ ही उन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा।

गुरू रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात
नरेन्द्र की बचपन से ही परमात्मा को पाने की लालसा थी। पहले वे इसके लिए ब्रह्म समाज गए, लेकिन वहां उन्हें संतोषजनक मार्गदर्शन नहीं मिला। रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास गए। परमहंसजी ने देखते ही नरेन्द्र की प्रतिभा को पहचान लिया। परमहंसजी की कृपा से उनको आत्म-साक्षात्कार हुआ। 25 वर्ष की उम्र में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ।



स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की हालत की परवाह किए बिना अपने गुरू की सेवा में लगे रहते थे। नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख थे।

शिकागो धर्म सम्मेलन

1893 में अमेरिका के प्रसिद्ध शिकागो में विश्व धर्म संसद का आयोजन किया गया था। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। यहां दुनिया भर से अलग-अलग धर्मों के विद्वानों के सामने विवेकानंद जी ने वेदांत का ऐसा ज्ञान दिया कि पूरा संसद तालियों से गूंज उठा और भारतवासियों का मष्तक गर्व से ऊंचा उठ गया। इसी सम्मेलन में अपने भाषण की शुरुआत में उन्होंने सम्मेलन में आए सभी लोगों को भाइयों-बहनों कहकर सम्बोधित किया था। उनकी वक्तव्य शैली और ज्ञान को देखते हुए वहां के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया।



धर्म संसद में कही गई उनकी बातों के बाद अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। वे तीन वर्ष तक अमेरिका में रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।

भारत को पावन देश और मुक्ति का द्वारा मानते थे विवेकानंद
अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द वो उपदेश दे गए जो आने वाली पीढियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों को एक नया भारत खड़ा करने का आह्वान किया। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने।

स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था, "मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के गांवों में जाकर देशवासियों की सेवा में समर्पित हो जाएं। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर आध्यात्मिक चिंतन किया था।



स्वामीजी ने एक बार यह भी कहा था कि विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं और पश्चिम को उसकी जरूरत है। वे भारत को पवित्र धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि मानते थे। वे यह मानते थे कि आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति के द्वार यहीं से खुले हैं।

युवाओं में नई ऊर्जा का संचार कर देंगी स्वामी विवेकानंद की कही ये बातें

स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर ऐसे उपदेश दिए, जो आज के समय में भी प्रासंगिक हैं और आगे भी रहेंगे। उनकी कही गई बाते आज भी युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम करती हैं। उनके द्वारा कही और लिखी गई इन बातों को पढ़कर निराश जीवन में भी एक नई ऊर्जा का संचार हो सकता है।


 

  • उठो और जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि तुम अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते।
  • एक समय में एक काम करो, ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ।
  • भला हम भगवान को खोजने कहां जा सकते हैं अगर उसे अपने ह्दय और हर एक जीवित प्राणी में नहीं देख सकते।
  • सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी हर एक सत्य ही होगा।
  • पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता, एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान। ध्यान से ही हम इन्द्रियों पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते हैं।
  • शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भन बने।
  • किसी दिन, जब आपके सामने कोई समस्या ना आए, आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं।
  • हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखिए कि आप क्या सोचते हैं। शब्द गौण हैं। विचार रहते हैं। वे दूर तक यात्रा करते हैं।
  • जो तुम सोचते हो वो हो जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे।
  • सबसे बड़ा धर्म है अपने स्वभाव के प्रति सच्चे होना। खुद पर विश्वास करो।
  • जितना बड़ा संघर्ष होगा जीत उतनी ही शानदार होगी।
  • एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है। 
  • ब्रह्मांड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हमीं हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है।


स्वामी विवेकानंद की महासमाधि

स्वामी  विवेकानंद ने महज 39 साल की उम्र में महासमाधि ले ली थी। उन्होंने यह पहले ही कह दिया था कि वे 40 वर्ष से ज्यादा नहीं जिएंगे। शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को उन्होंने सुबह तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी थी।

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