राजा जनमेजय का नाग यज्ञ की वजह से आज भी अवन्तिकापुरी में नहीं काटते हैं सांप

Snakes do not bite anyone in Avantikapuri,Janmajay is the reason
राजा जनमेजय का नाग यज्ञ की वजह से आज भी अवन्तिकापुरी में नहीं काटते हैं सांप
राजा जनमेजय का नाग यज्ञ की वजह से आज भी अवन्तिकापुरी में नहीं काटते हैं सांप

डिजिटल डेस्क । उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ के अवन्तिकापुरी का ऐतिहासिक महत्व है, जो हजारों साल पूर्व का है। ये एक बड़ा तीर्थ स्थल है, जहां सर्प विनाश के लिए त्रेता युग में राजा जनमेजय ने यज्ञ किया था। इस क्षेत्र में किसी को सर्प नहीं काटता है, यदि किसी को काट लिया तो वो व्यक्ति यहां बने सरोवर में स्नान कर लेता है तो उसे विष नहीं चढ़ता है। यही नहीं यदि कोई विषैला सर्प रास्ते में आते-जाते किसी व्यक्ति को मिल जाता है तो वो सिर्फ राजा जनमेजय का नाम ले लेता है तो वो विषैला सर्प रास्ता बदल देता है। इसीलिए लोग यहां साल में एक बार आकर सरोवर में स्नान कर लेते है जिससे उनका पूरा साल हर प्रकार के दुखों से दूर रहता है। जानकार बताते है कि सभी तीर्थ करने के पहले यहां का तीर्थ करना जरूरी होता है और लोग साल में एक बार यहां जरूर आते है। यहां का सरोवर 84 बीघा में फैला हुआ है। पूर्वकाल में ये यज्ञ भूमि थी, जिसमें राजा जनमेजय ने सर्प विनाश के लिए एक विशाल यज्ञ कराया था। यहां पर आते ही सभी को शांति की अनुभूति होती है और कुछ नया करने की ललक होती है। यहां कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु पूरे देश से आते है। 

 

ये टीला जिस पर मंदिर स्थापित है पूर्वकाल में यह राजा जनमेजय का किला था, जो धीरे-धीरे टीले का रूप धारण कर लिया है। इस टीले के चारों तरफ घनघोर जंगल है। इस सरोवर में स्नान करने से आज भी चर्म सम्बन्धी रोग दूर होता है। जब जनमेजय ने यज्ञ की अंतिम आहूति दी तो वह सर्प भी इन्द्र के साथ यज्ञ कुण्ड के पास आ गया। अपने पुत्र का प्राण जाता देख उसकी माता जरत्कारू ने यज्ञकर्ताओं से निवेदन किया कि अब मेरे पुत्रों में से यह तक्षक ही अकेले बचा है इसका विनाश न किया जाए। यज्ञकर्ताओं ने कहा कि तक्षक यह वचन दे कि भविष्य में राजा जनमेजय का नाम सुनते ही यह किसी व्यक्ति या जीव को न काटे और यदि भूलवश किसी को काट भी ले तो उसे न विष का असर होगा और न उसकी मृत्यु होगी। 

 

प्राण जाता देख तक्षक ने राजा जनमेजय को यह वचन दिया कि जो भी व्यक्ति जनमेजय का नाम लेगा उन्हें देख सर्प मार्ग बदल देंगे और किन्ही भी स्थितियों में उन्हें नही काटेंगे, यदि काट भी लिया तो सरोवर में स्नान करने पर विष का प्रभाव उस पर नही होगा। सर्प द्वारा यह वचन देते ही राजा ने तक्षकनाग को मुक्त कर दिया। प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णमासी के दिन यहां विशाल मेला लगता है। लोग यहां देवी-देवताओं का दर्शन व पूजा-पाठ करते है। यहां 84 बीघे में राजा जनमेजय का यज्ञ कुण्ड था जो अब सरोवर का रूप ले चुका है। 
यह विश्व के प्राचीनतम धर्मस्थलों में से एक है।

 

क्या कथा है ?

जनमेजय अर्जुन के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे। जनमेजय की पत्नी वपुष्टमा थी, जो काशीराज की पुत्री थी। बड़े होने पर जब जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का कारण सर्पदंश जाना तो उसने तक्षक से प्रतिशोध लेन चाहा। जनमेजय ने सर्पों के संहार के लिए सर्पसत्र नामक महान यज्ञ का आयोजन किया। नागों को इस यज्ञ में भस्म होने का शाप उनकी मां कद्रू ने दिया था।

 

समुद्र मंथन में रस्सी के रूप में कार्य करने के उपरान्त नागवासुकी ने सुअवसर पाकर अपने त्रास की गाथा ब्रह्माजी से कही। उन्होंने कहा कि ऋषि जरत्कारू का पुत्र धर्मात्मा आस्तीक सर्पों की रक्षा करेगा, दुरात्मा सर्पों का नाश उस यज्ञ में अवश्यंभावी है। राजा परिक्षित् एक बार शिकार खेलते समय एक ऋषि के गले में मारा हुआ सर्प डालने का अपराध कर बैठे। इसके फल-स्वरूप उन्हें साँप से डस कर मरने का शाप मिला। इस अपराध से चिढ़कर जनमेजय ने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने के लिए सर्पयज्ञ अनुष्ठान ठान दिया। अब क्या था, लगातार सर्प आ-आकर हवन-कुण्ड में गिरने लगे। अपराधी तक्षक डर के मारे इन्द्रदेव की शरण में पहुंचा। 

 

इधर वासुकी ने जब अपने भानजे, जरत्कारु मुनि के पुत्र, आस्तीक से नाना के वंश की रक्षा करने का अनुरोध किया तब वे जनमेजय के यज्ञस्थल में जाकर यज्ञ की बेहद प्रशंसा करने लगे। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उनको मुंहमांगी वस्तु देने का वचन दिया। इस पर आस्तीक ने प्रार्थना की कि अब आप इस यज्ञ को यहीं समाप्त कर दें। ऐसा होने पर सर्पों की रक्षा हुई। राजा जनमेजय की रानी का नाम वसुष्टमा था। यह काशिराज सुवर्णवर्मा की राजकुमारी थी। वास्तव में अपराधी तक्षक नाग था, उसी को दण्ड देना राजा जनमेजय का कर्तव्य था। 

 

किंतु क्रोध में आकर उन्होंने सारी सर्पजाति को नष्ट कर देने का बीड़ा उठाया जो अनुचित था। एक के अपराध के लिए बहुतों को दण्ड देना ठीक नहीं। जिसने अपराध किया था और जिस दण्ड देने के लिए इतनी तैयारियाँ की गई थीं वह तक्षक अंत मे बच गया। यह आश्चर्य की बात है। जनमेजय ने सर्पसत्र प्रारंभ किया। अनेक सर्प आह्वान करने पर अग्नि में गिरने लगे तब भयभीत तक्षक ने इन्द्र की शरण में इन्द्रपुरी में ही रहने लगा। वासुकि की प्रेरणा से आस्तीक परीक्षित के यज्ञस्थल भी पहुंचा तथा भांति-भांति से यजमान तथा ऋत्विजों की स्तुति करने लगा। उधर ऋत्विजों ने तक्षक का नाम लेकर आहुति डालनी प्रारंभ की। इन्द्र तक्षक को अपने उत्तरीय में छिपाकर वहां तक आये। 

 

यज्ञ का विराट रूप देखकर वे तक्षक को अकेला छोड़कर अपने महल में चले गये। विद्वान ब्राह्मण बालक, आस्तीक, से प्रसन्न होकर जनमेजय ने उसे एक वरदान देने की इच्छा प्रकट की तो उसने यज्ञ की तुरंत समाप्ति का वर मांगा, अत: तक्षक बच गया क्योंकि उसने अभी अग्नि में प्रवेश नहीं किया था। नागों ने प्रसन्न होकर आस्तीक को वर दिया कि जो भी इस कथा का स्मरण करेगा- सर्प कभी भी उसका दंशन नहीं करेंगे।

 

परीक्षित-पुत्र जनमेजय सुयोग्य शासक था। बड़े होने पर उसे उत्तंक मुनि से ज्ञात हुआ कि तक्षक ने किस प्रकार परीक्षित को मारा था जिस प्रकार रूरू ने अपनी भावी पत्नी को आधी आयु दी थी वैसे परीक्षित को भी बचाया जा सकता था। मन्त्रवेत्ताकश्यप कर्पंदंशन का निराकरण कर सकते थे पर तक्षक ने राजा को बचाने जाते हुए मुनि को रोककर उनका परिचय पूछा। उनके जाने का निमित्त जानकर तक्षक ने अपना परिचय देकर उन्हें परीक्षा देने के लिए कहा। तक्षक ने न्यग्रोध (बड़) के वृक्ष को डंस लिया।

 

Created On :   7 Jan 2019 6:46 AM GMT

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