कोरोना का समय धीरज रखने का है

कोरोना का समय धीरज रखने का है

Tejinder Singh
Update: 2020-05-17 11:59 GMT
कोरोना का समय धीरज रखने का है

डिजिटल डेस्क, नागपुर। कोरोना के कारण इन दिनों लॉकडाउन से लोगों को सबक मिला हैं। लॉकडाउन के कारण दुनिया रुक सी गई हैं, लेकिन यह समय धीरज रखने का हैं। इस समय शारीरिक और मानसिक स्थिति को सामान्य रखना हर किसी के लिए एक बड़ी चुनौती है। कोरोना में हर व्यक्ति अपने पसंद के क्षेत्र को चुनकर उसके लिए समय दे रहा हैं। साथ ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जा रहा है। कुछ संस्थाओं ने ऑनलाइन क्विज का आयोजन किया है। युवा वर्ग वॉट्सएप, इंस्टाग्राम और सोशल साइट्स पर अपना समय व्यतीत कर रहा है। लॉकडाउन के संदर्भ में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों से चर्चा की गई, तो उन्होंने अपने अनुभवों को साझा किया।

कल्पना भी नहीं की थी

कोरोना के रूप में जो महामारी आई है, उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। हम सभी घरों में बंद हैं। मैं एक बात कहना चाहती हूं कि शिक्षा हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा के बिना जिंदगी जीना पशु के समान है। मैं कक्षा चार तक पढ़ी हूं। मेरा विवाह 7 वर्ष की उम्र में ही हो गया था। मेरे ससुर जी ने मेरा स्कूल में दाखिला कराया और मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की। फिर आगे की पढ़ाई नहीं हो पाई। मुझे लगता है कि शिक्षित होने से मानसिक और सामाजिक दोनों तरह से जागरूक होते हैं, लोगों के बीच सम्मान बढ़ता है। मैंने लॉकडाउन में कोरोना पर कविता बनाई हैं, जिसमें कोरोना योद्धा का भी जिक्र है। कोरोना योद्धा जान जोखिम में डालकर देशवासियों की सुरक्षा कर रहे हैं। मुझे लगता है कि बिना वजह बाहर घूमने के बजाय घर पर रहकर सभी को अपनी रुचि का कार्य करना चाहिए। सभी को सरकार के दिए गए निर्देशों का पालन करना चाहिए

-अंजनाबाई खुणे, 

दिन-रात सेवा कार्य में जुटा हूं

कोरोना के समय दिन-रात सेवा कार्य में जुटा हूं। 2014 में हमने सेवा किचन शुरू किया था। आज उससे जरूरतमंदों की मदद कर रहे हैं। तालाबंदी से बहुत से परिवारों के भूखे मरने की नौबत आ गई है। ऐसे परिवारों के लिए राशन किट वितरित की है, साथ ही यवतमाल के किसानों की विधवाओं के भी 2000 से अधिक राशन किट भेजी गई है। मैं कोरोना योद्धाओं के जज्बे को सलाम करता हूं। मुझे लगता है कि कोरोना से हर व्यक्ति की जिंदगी में बदलाव आया है। इन दिनों सभी सादा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मैं अपना निजी अनुभव बताना चाहता हूं कि मेरी बेटी की चप्पल टूट गई, तो उसने मुझे नई चप्पल लाने को कहा। तो मैंने उसे समझाया कि बेटा बहुत सारे ऐसे  बच्चे हैं, जिनके पैर में छाले पड़ गए हैं। वे बिना चप्पल पहने ही अपने घरों की ओर निकल पड़े हैं। इसलिए तुम्हें अभी नई चप्पल नहीं मिलेगी। हमें बच्चों को यही समझाना है कि उन लोगों की तरफ देखो, जिनके पास आवश्यक वस्तुओं का अभाव है। सभी अपने बच्चों से प्यार करते हैं, लेकिन समाज में जो स्थिति है उसका आइना बच्चों को दिखाना जरूरी है। मैंने कुछ समय पहले एक कविता लिखी है। मुझे लगता है कि वो कविता जैसे आज के समय के लिए ही लिखी गई थी।

-खुशरू पोचा 

गोंदिया की रहने वाली अंजनाबाई खुणे 82 वर्ष की हैं। उन्हें ‘झाड़ीकन्या’ के नाम से जाना जाता है। उनकी कविताएं नागपुर विद्यापीठ के बीकॉम भाग-2 एवं गोंडवाना विद्यापीठ के बीए प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं। उनका प्रथम कविता संग्रह 2000 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने देश के कई राज्यों में जाकर कविता पाठ किया है। दैनिक भास्कर की ओर से उन्हें 2018 में सम्मानित किया गया था।

खुशरू पोचा को दैनिक भास्कर की ओर से 2015 में सम्मानित किया गया था। श्री पोचा "सेवा किचन" चलाते हैं। जहां से प्रतिदिन शहर के कई अस्पतालों और जरूरतमंदों को नि:शुल्क खाना दिया जाता है। कई अस्पतालों में "नेकी का पिटारा" नाम के फ्रिज में जरूरतमंदों के लिए दूध, फल और जरूरत का सामान रखा जाता है।

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