7295 शवों को दिया कंधा, पुलिस भी लावारिस मृतकों के दाह के लिए जनसंवेदना के भरोसे 

अंतिम संस्कार को बनाया ध्येय 7295 शवों को दिया कंधा, पुलिस भी लावारिस मृतकों के दाह के लिए जनसंवेदना के भरोसे 

Juhi Verma
Update: 2021-09-04 13:34 GMT
7295 शवों को दिया कंधा, पुलिस भी लावारिस मृतकों के दाह के लिए जनसंवेदना के भरोसे 

डिजिटल डेस्क, भोपाल। राजधानी भोपाल में एक जनसंवेदना मानव कल्याण सेवा संस्था बीते डेढ़ दशक से मृतकों के कफन, दफन, दाह संस्कार कर रही है। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में मार्च, अप्रैल और मई में जिस समय लोग अपने परिजनों के अंतिम संस्कार करने से खौफ खा रहे थे, तब इस संस्था ने 110 लावारिश शवों का अंतिम संस्कार किया है। इनमें कई शव संक्रमित थे और 65 ऐसे शवों को भी कफन-दफन किया है जिनके वारिस थे, लेकिन परिजनों ने इन शवों को छुआ तक नहीं। ऐसे में इन संक्रमित शवों का भी जनसंवेदना मानव सेवा संस्था प्रबंधन ने ही अंतिम संस्कार किया है। दिलचस्प बात तो यह है कि बीते 16 साल में संस्था द्वारा अब तक 7295 शवों को कंधा दिया है। इनमें 3300 शव लावारिस है। राजधानी में यदि पुलिस को भी कोई लावारिस शव का अंतिम संस्कार करना हों तो इसी संस्था को पुलिस याद करती है। संस्था द्वारा किसी धर्म, जाति अथवा वर्ग का ध्यान किए बिना सिर्फ शव के अंतिम क्रिया-कर्म पर फोकस किया जाता है। राजधानी के जहांगीराबाद स्थित संस्था केवल अंतिम संस्कार करने का काम करती है, इनमें सबसे अधिक लावारिस मृतकों को तरजीह दी जाती है  

संस्था के संचालक राधेश्याम अग्रवाल ने बताया कि पिछले 16 साल में भोपाल शहर में 7295 शवों का अंतिम क्रिया-कर्म किया गया है। इनमें लावारिस शव 3300 भी शामिल है। 3995 ऐसे शव थे, जिनके परिजनों के पास मृतक के कफन के पैसे भी नहीं थे। अग्रवाल ने एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि नौकरी छूटने के बाद मुंबई गया था। वहां, रेलवे प्लेटफार्म पर पटरी पार करते समय ट्रेन की चपेट में आते-आते बचा गया, जिसका मुझे बिलकुल ध्यान नहीं था। एक अनजान व्यक्ति ने कहा कि तुम किस्मत वाले हो जो बच गये, नहीं तो आज तुम स्वर्गवासी हो जाते। तब मेरी चेतना जागी तो मैंने विचार किया कि जीवन क्या है कुछ नहीं इसे सार्थक बनाना चाहिए। इसके बाद मैंने संस्था के माध्यम से सेवा करना शुरु किया। शुरूआती दिनों में आर्थिक परेशानियां हुई, लेकिन अब समाजसेवियों के अनुदान से हम अंतिम संस्कार जैसा काम कर पा रहे हैं।  

पुलिस भी संस्था के भरोसे  
अग्रवाल ने बताया कि अधिकतर लावारिश शव राजधानी की पुलिस द्वारा भेजे जाते है। ये वे शव होते हैं जिनके परिजन पहले तो सामने आते हंै पर जब शव लेने अथवा दाह संस्कार की बारी आती है तो इस कर्म से मूकर जाते हैं। कई शवों के कोई भी परिजन सामने नहीं आते अथवा समय पर परिजनों की तलाशी नहीं हो पाती है। कई मामलों में जब परिजन दाह संस्कार नही करते तो पुलिस ऐसे शवों को संस्था के पास भेज देती है। पोस्टमार्टम के बाद पुलिस हमसे संपर्क करती है।  
सबसे ज्यादा शव कोहेफिजा क्षेत्र से

राजधानी के सरकारी अस्पताल हमीदिया में ऐसे प्रकरण ज्यादा होते हैं, जिनमें बाहरी इलाके के गरीब लोग उपचार करवाते हैं। उपचार के दौरान मृत्यु होने पर परिजन शव ले जाने से भी इंकार कर देते हैं। ऐसे समय भी पोस्टमार्टम के बाद ऐसे शवों को पुलिस, इस संस्था को सौंपती है। ऐसे शवों को भदभदा विश्राम घाट में दफनाया जाता है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि जब परिजन सामने आये तो शव का खनन कर दाह संस्कार करवाना पड़ा। यानी एक शव के दो बार भी अंतिम संस्कार करने पड़े। शव दफनाने  के बाद कई बार परिजन सामने आने पर पता चलता है कि दफनाया गया शव का हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया जाना है, इसलिए दोबारा इसका खर्च भी संस्था ही उठाती है।  

मरीजों के परिजनों को रोज बांटते भोजन सामग्री  
संस्था द्वारा रोजाना सुलतानिया जनाना और हमीदिया अस्तपाल में भर्ती मरीजों के परिजनों को खाने के पैकैट बांटे जाते हैं। जिनमें ज्यादातर महिलाओं को तवज्जो दी जाती है। अगर पैकेट बचते है तब पुरूषों को दे दिए जाते हैं। खाने के पैकेट का खर्चा ऐसे समाजसेवियों द्वारा किया जाता है, जिनके परिवार के सदस्यों की पुण्यतिथि अथवा जन्मदिन होता है।
 

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