MeToo : ‘पीड़िताओं के आरोपों पर फैसला करना पुलिस नहीं कोर्ट की जिम्मेदारी’ कानूनविदों की राय

MeToo : ‘पीड़िताओं के आरोपों पर फैसला करना पुलिस नहीं कोर्ट की जिम्मेदारी’ कानूनविदों की राय

Anita Peddulwar
Update: 2018-10-18 12:35 GMT
MeToo : ‘पीड़िताओं के आरोपों पर फैसला करना पुलिस नहीं कोर्ट की जिम्मेदारी’ कानूनविदों की राय

डिजिटल डेस्क, मुंबई। यौन उत्पीड़न को लेकर पीड़ित महिलाओं द्वारा शुरू किए गए ‘मी टू मूवमेंट’ ने कई जानी-मानी हस्तियों को आरोपों के कटघरे में खड़ा कर दिया है। फिर चाहे पूर्व  विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर हो या फिर जाने-माने फिल्म अभिनेता नाना-पाटेकर व संस्कारी बाबूजी के नाम से मशहूर अभिनेता आलोकनाथ। अब देखना महत्वपूर्ण होगा कि ये मामले कानून की कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं। इसको लेकर कानूनविदों की मिलीजुली राय है।

देरी का कोई औचित्य नहीं
महिलाओं से जुड़े मामलों को लेकर सदैव सक्रिय रहनेवाली जानी-मानी अधिवक्ता फ्लेविया एग्नेस की माने तो पीड़िता के पास अपनी बात पुलिस के पास कहने का अधिकार है। पुलिस को महिला की शिकायत का संज्ञान लेकर मामले की तहकीकात करनी चाहिए। पीड़िता के आरोप कितने सही है या गलत यह तय करना कोर्ट का काम है। सिर्फ देरी के आधार पर महिला को मामला दर्ज कराने से हतोत्साहित करना उचित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी मामले में दिए गए अपने फैसले में साफ किया है कि यदि किसी शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है तो यह पुलिस का दायित्व है कि वह मामले की छानबीन करे। देरी को लेकर प्रसंगवश उन्होंने केरला में दुष्कर्म के मामले में आरोपी बिशप के मामले का उदाहरण दिया। यह मामला भी कई सालों बाद दर्ज कराया गया है। इसलिए सबसे जरुरी बात है कि शिकायत मिलने के बाद पुलिस इस बात को देखे की कानून प्रावधानों का उल्लंन हुआ है कि नहीं।

पैसा वसूली का माध्यम है यह अभियान
वहीं जानी-मानी अधिवक्ता फरहाना शाह का कहना है कि मी टू एक तरह का पैसा वसूली का माध्यम है। जिसमें कानून का खौफ दिखाकर कुछ लोग पैसों की उगाही करना चाहते हैं। यदि मी टू के जरिए शिकायत करनेवालों की बातों में इतनी सच्चाई व असलियत है तो उन्होंने घटना होने पर मामले क्यों नहीं दर्ज कराए। मेरी राय में मी टू प्रचार व लोकप्रियता पाने का एक माध्यम है। चूंकि कानून महिलाओं के पक्ष में है, इसलिए वे घडियाली आंसू लेकर पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने पहुंच जाती हैं। जबकि वास्तव में जिन मामलों में सच्चाई होती है, उन पर ध्यान नहीं दिया जाता।

आरोपी को मिल सकती है राहत
अधिवक्ता उदय वारुंजेकर के अनुसार मामला दर्ज कराने में होनीवाली देरी के आधार पर कोर्ट कई बार आरोपी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द भी कर देती है और मामले से मुक्त भी कर देती है। उन्होंने स्पष्ट किया कि पीड़िता को सोशल मीडिया पर किसी पर आरोप लगाने की बजाय पुलिस स्टेशन में जाकर अपनी बात कहनी चाहिए और अपना बयान दर्ज कराना चाहिए।

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