कर्नाटक चुनाव: क्या है नतीजों के मायने ?
- कर्नाटक विधानसभा की 222 सीटों के आए अभी तक के रुझानों में बीजेपी बहुमत के मार्क से काफी आगे बढ़ चुकी है।
- इस चुनाव ने मोदी का कद पार्टी से भी बहुत बड़ा साबित कर दिया है।
- कर्नाटक चुनाव ने साबित कर दिया है कि देश में मोदी की लहर फिलहाल बरकरार है।
- कांग्रेस अगर यह चुनाव हारती है तो इसी साल नवंबर के आसपास मध्य प्रदेश
- राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उसका दावा कमजोर पड़ जाएग
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। कर्नाटक विधानसभा की 222 सीटों के आए अभी तक के रुझानों में बीजेपी बहुमत के मार्क से काफी आगे बढ़ चुकी है। शुरुआती आंधे घंटे में कांग्रेस ने बढ़त बना रखी थी, लेकिन इसके बाद बीजेपी लगातार आगे चल रही है। यह चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए अपनी-अपनी तरह से महत्वपूर्ण है। भाजपा के लिए कर्नाटक चुनाव दक्षिण का प्रवेश द्वार साबित होने वाला है, जबकि कांग्रेस के लिए यह अपना अस्तित्व कायम का रखने का निर्णायक संघर्ष है।
कांग्रेस अगर यह चुनाव हारती है तो इसी साल नवंबर के आसपास मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उसका दावा कमजोर पड़ जाएगा। इसके बरअक्स भाजपा को ताकत मिलने वाली है। कर्नाटक चुनाव ने साबित कर दिया है कि देश में मोदी की लहर फिलहाल बरकरार है। इस चुनाव ने मोदी का कद पार्टी से भी बहुत बड़ा साबित कर दिया है।
अब केवल 3 राज्यों में सिमटी कांग्रेस, कोई बड़ा राज्य नहीं
कर्नाटक के मोर्चे पर पराजय के बाद अब कांग्रेस के खाते में पंजाब, मिजोरम और पुडुचेरी ही बचे हैं। भाजपा इस समय 20 राज्यों की सत्ता में है। कांग्रेस की इस पराजय ने उसके राजनीतिक वजूद को बेहद सीमित कर दिया है। उसका मतदाता आधार सिमट कर 2.5 रह गया है। देश के छह राजनीतिक दल हैं, जिनका मतदाता आधार कांग्रेस से कहीं ज्यादा है। तृणमूल कांग्रेस का वोट शेयर 7.5 है, एआईएडीएमके का 6 फीसदी, टीडीपी का 4 फीसदी और बीजेडी का 3.5 फीसदी है। कांग्रेस ने जिस तरह अपना वोट शेयर गंवाया है, उससे उसकी राष्ट्रीय पार्टी पार्टी के स्टेटस का गंभीर क्षति पहुंचाई है। उसकी तुलना में भाजपा का वोट शेयर 71 फीसदी है।
इन वजहों से भाजपा ने कांग्रेस पर बनाई बढ़त
इस बार येदियुरप्पा की वापसी होती दिखाई दे रही है, पिछली बार की तरह वोट नहीं कटे हैं। कर्नाटक में भाजपा ने जब पहली बार अपने बूते सरकार बनाई थी तो 2008 में कमान येदियुरप्पा को सौंपी थी। लेकिन बाद में खनन घोटालों में आरोपों के चलते येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। बाद में पार्टी से नाराज होकर येदियुरप्पा ने दूसरी पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष बना ली और 2013 का चुनाव अपने दम पर अलग लड़ा। 2013 के चुनाव में भाजपा के हाथ से सत्ता निकल गई थी। येदियुरप्पा की पार्टी को केवल 6 सीटें मिलीं, लेकिन उनके हिस्से में 9.8 फीसदी वोट आए। माना गया कि इसी 9.8 फीसदी वोट शेयर ने भाजपा का रास्ता रोक दिया। इस बार ऐसा नहीं था। पार्टी में वापसी कर चुके येदियुरप्पा ही राज्य में पार्टी का चेहरा और सीएम कैंडिडेट थे। इससे पिछली बार की तरह भाजपा के वोट नहीं कटे और वोटर लामबंद हो गए।
उलटा पड़ा सिद्धारमैया का लिंगायत कार्ड
सिद्धारमैया ने चुनाव की तारीखों का एलान होने से ठीक पहले राज्य में लिंगायत कार्ड खेला। इस समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केंद्र की मंजूरी के लिए भेजा। माना जा रहा है कि सिद्धारमैया का यह दांव उलटा पड़ा। राज्य में लिंगायतों की आबादी 17 फीसदी से घटाकर 9 फीसदी मानी गई। माना गया कि आबादी को कम आंकने से यह तबका कांग्रेस से खफा हो गया। इस कदम से वोक्कालिगा समुदाय और लिंगायतों के एक धड़े वीराशैव में भी नाराजगी थी।
मोदी पर केंद्रित रहा कर्नाटक चुनाव
कर्नाटक का चुनाव पूरी तरह मोदी के ऊपर कंद्रित रहा है। मोदी ने इस चुनाव में 21 रैलियां कीं। कर्नाटक में किसी प्रधानमंत्री की सबसे ज्यादा रैलियां थीं। दो बार नमो एप से मुखातिब हुए। करीब 29 हजार किलोमीटर की दूरी तय की। इस दौरान मोदी एक भी धार्मिक स्थल पर नहीं गए। मोदी ने 20 करोड़ आबादी और 403 सीट वाले यूपी में 24 रैलियां की थीं। कर्नाटक की आबादी 6.4 करोड़ और 224 सीटें हैं। मोदी ने सबसे अधिक 34 रैलियां गुजरात में और 31 बिहार चुनाव में की थीं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 27 रैलियां और 26 रोड शो किए। करीब 50 हजार किलोमीटर की यात्रा की। 40 केंद्रीय मंत्री, 500 सांसद-विधायक और 10 मुख्यमंत्रियों ने कर्नाटक में प्रचार किया। भाजपा नेताओं ने 80 रोड शो किए। 400 से ज्यादा रैलियां कीं।
किसने चुनी सरकार?
कुल सीटें: 224, बहुमत: 113
कुल उम्मीदवार:2655
कुल वोटर: 4.96 करोड़, राज्य की जनसंख्या 6.4 करोड़
2 सीटों पर चुनाव टाले गए : राजराजेश्वरी, जयनगर
किस जाति का कितना दबदबा?
कर्नाटक की राजनीति में जातीय विभाजन हमेशा से ही निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। दलित: 19 फीसदी, मुस्लिम 16 फीसदी, ओबीसी: 16 फीसदी, लिंगायत 17 फीसदी, वोक्कालिगा 11 फीसदी, अन्य 21 फीसदी।
Created On :   15 May 2018 11:45 AM IST