उत्तराखंड चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच देखा जा सकता है कड़ा मुकाबला - सर्वे
डिजिटल डेस्क, देहरादून। भाजपा और कांग्रेस के बीच उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में कड़ा मुकाबला देखने को मिल सकता है। एबीपी-सीवोटर बैटल फॉर स्टेट्स सर्वे में सामने आए निष्कर्षों से यह अनुमान लगाया गया है। 70 सदस्यीय उत्तराखंड विधानसभा के लिए 14 फरवरी को मतदान होगा, जबकि वोटों की गिनती 10 मार्च को होगी। सर्वेक्षण के अनुसार, भाजपा को यहां 34 सीटें मिल सकती हैं, जबकि कांग्रेस के खाते में 33 सीटें आ सकती हैं। राज्य में बड़ी जीत का दावा कर रही भाजपा कांग्रेस से महज एक सीट अधिक जीतती दिखाई दे रही है। सर्वेक्षण में उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों से आने वाले 7,304 लोग शामिल थे।
चुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि आखिर मुख्यमंत्री पद का पसंदीदा उम्मीदवार कौन है। वरिष्ठ नेता और कांग्रेस के पूर्व सीएम हरीश रावत 37 प्रतिशत समर्थन के साथ मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मीलों आगे दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें लगभग 29 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है। सर्वे के अनुसार, रावत के समर्थकों की संख्या 2021 के अंत से उनके शुरूआती बिंदु के रूप में 30 प्रतिशत से लगातार बढ़ी है। एक मौजूदा मुख्यमंत्री के लिए एक विपक्षी नेता से लोकप्रियता इतनी कम होना दुर्लभ है, लेकिन राज्य में भाजपा द्वारा एक साल के भीतर तीन सीएम के तेजी से बदलाव को देखते हुए, यह शायद ही आश्चर्य की बात है।
सामान्य परिस्थितियों में, इससे उत्तराखंड में कांग्रेस के लिए एक सहज जीत दर्ज की जानी चाहिए थी, लेकिन पोल ट्रैकर ने लगातार लड़ाई को बेहद करीबी दिखाया है, जिसमें दोनों पार्टियां एक-दूसरे को कड़ी टक्कर दे रही हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि राज्य में बीजेपी के वोटर सपोर्ट में भारी गिरावट आई है। 2017 के चुनावों में, पार्टी ने 46.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था, जिसके इस बार 8 प्रतिशत गिरने का अनुमान है। 2017 के चुनाव में उसे 57 सीटें मिली थीं और इस बार उसे 23 सीटों का नुकसान होने की संभावना है।
राज्य में कुमाऊं और तराई या मैदानी इलाकों में नुकसान तीव्र है। हालांकि कुमाऊं में वे कड़ी टक्कर में हैं और कांग्रेस 40.1 प्रतिशत वोट शेयर के साथ भाजपा से बहुत आगे है, जिसे 35.6 प्रतिशत मिलने का अनुमान है। यह गढ़वाल क्षेत्र है, जो कांग्रेस के लिए 36.1 प्रतिशत की तुलना में 41.1 प्रतिशत वोट शेयर के साथ भाजपा को बचा रहा है। भाजपा में शीर्ष पद के लिए अनिल बलूनी, भगत सिंह कोश्यारी, मेजर जनरल बी. सी. खंडूरी और सतपाल महाराज को मतदाताओं का अच्छा समर्थन मिल रहा है। ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री पद में बार-बार बदलाव ने मतदाताओं को भ्रमित किया है। लेकिन अगर आप उनकी संख्या जोड़ दें, तो सीएम की पसंद के रूप में भाजपा उम्मीदवारों की कुल संख्या हरीश रावत से आगे है।
ऐसा लगता है कि बीजेपी के कुछ हालिया फैसलों से भगवा पार्टी को मदद मिली है। पहला यह कि धामी जैसे जमीनी कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया था। इसके अलावा केदारनाथ और बद्रीनाथ जैसे महत्वपूर्ण मंदिरों सहित 52 मंदिरों का नियंत्रण संबंधी आदेश और विधानसभा में पारित एक विधेयक को रद्द करना भी शामिल है। अभी कुछ समय पहले हरीश रावत ने नए साल की पूर्व संध्या पर सोशल मीडिया पर गुप्त संदेश भेजकर तूफान खड़ा कर दिया था, जो कांग्रेस के भीतर लड़ाई में तीव्र होने का संकेत दे रहा था। इसके बाद वे दिल्ली आए और पार्टी आलाकमान से मिले और शांत हुए। लेकिन अगर अंदरूनी कलह जारी रहती है, तो कांग्रेस एक ऐसा राज्य खो सकती है, जिसके जीतने की अच्छी संभावना है।
आम आदमी पार्टी (आप) फैक्टर के बिना, कांग्रेस आराम के उत्तराखंड जीतने की उम्मीद कायम है। हालांकि पोल ट्रैकर स्पष्ट रूप से दिखाता है कि आप को भाजपा विरोधी वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिल रहा है, इसके अलावा उसे मतदाताओं का अपना नया आधार बनाने का मौका भी मिल रहा है, जैसे वह गोवा में कर रही है। 2017 में आप का शून्य वोट शेयर कहा जा सकता है, क्योंकि उसने औपचारिक रूप से चुनाव नहीं लड़ा था। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए इसकी ओर से 12.9 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करने का अनुमान है।
जैसा कि ज्ञात है, 15 प्रतिशत की सीमा से नीचे का वोट शेयर कई सीटों में तब्दील नहीं होता है। तो, इस लिहाज से आप को सिर्फ 3 सीटें जीतने मिलने का अनुमान है। ज्यादा अहम बात यह है कि वह कांग्रेस के लिए कितनी सीटों पर हार सुनिश्चित करेगी।
मैदानी इलाकों में कांग्रेस आराम से आगे दिख रही है, लेकिन अगर आम आदमी पार्टी वहां सत्ता विरोधी वोटों को नहीं खा रही होती तो चुनाव में जीत हासिल कर सकती थी। कई मायनों में, अभी ताजा आंकड़े बताते हैं कि अगर कांग्रेस में कलह नहीं होता और हरीश रावत को पंजाब में चीजों को आगे बढ़ाने के बजाय उत्तराखंड पर ध्यान केंद्रित करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता, तो यह अब एक अलग कहानी हो सकती थी। हालांकि अभी सभी को 2021 की जनगणना के नतीजों का इंतजार करना होगा, मगर ऐसे संकेत हैं कि 2011 के बाद से मैदानी इलाकों की जनसांख्यिकी में बदलाव आया है और अगर यह सच है, तो यह एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।
(आईएएनएस)
Created On :   10 Jan 2022 10:00 PM IST