Remembering: मिर्ज़ा ग़ालिब की वजह से लोगों में बढ़ी शायरी के प्रति दिलचस्पी, ऐसे मिला उन्हें मिर्जा नाम

Remembering: मिर्ज़ा ग़ालिब की वजह से लोगों में बढ़ी शायरी के प्रति दिलचस्पी, ऐसे मिला उन्हें मिर्जा नाम

Bhaskar Hindi
Update: 2019-12-27 03:00 GMT
Remembering: मिर्ज़ा ग़ालिब की वजह से लोगों में बढ़ी शायरी के प्रति दिलचस्पी, ऐसे मिला उन्हें मिर्जा नाम

डिजिटल डेस्क, मुम्बई। जब भी बात शेर और शायरी की होती है, मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम जरुर याद किया जाता है। मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के ऐसे महान शायर हैं, जिन्होंने शायरी को एक अलग अंदाज में पेश किया। क्योंकि शेर और शायरी पहले केवल  फ़ारसी और उर्दू भाषा में ही हुआ करती थी। ग़ालिब साहब की वजह से ही इसमें हिंदी भाषा का समावेश हो सका। उन्होंने शेर और शायरी में हिंदी भाषा का बखूबी उपयोग किया। यही कारण रहा कि लोगों में शेर और शायरी के प्रति दिलचस्पी ज्यादा बढ़ गई। मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को हुआ था और उनका निधन 15 फरवरी, 1869 को हुआ। आज मिर्ज़ा ग़ालिब साहब कि जयंती पर जानते हैं उनके बारे में कुछ खास बातें। 

इस उम्र में लिखी पहली कविता
मिर्ज़ा ग़ालिब पूरा नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग खान था, लेकिन उन्होंने लेखन के ​लिए अपना नाम मिर्ज़ा ग़ालिब चुना, जिसे आम भाषा में पेन नेम कहा जाता है। बता दें ग़ालिब का मतलब उर्दू में विजेता होता है।  ग़ालिब ने महज 11 साल की उम्र में पहली कविता लिखी थी। उनकी मातृभाषा उर्दू थी लेकिन वह तुर्की और फारसी में भी पारंगत थे। उनकी शिक्षा अरबी और फारसी में हुई थी। 

औलाद का सुख नहीं हुआ नसीब
जब ग़ालिब साहब 13 साल के थे, तब उनकी शादी उमराव बेगम से हो गई थी। उमराव, नवाब इलाही बख्श की बेटी थीं। ग़ालिब साहब को औलादों का सुख कभी नसीब नहीं हुआ। क्योंकि उनके 7 बच्चे थे और कोई भी बच्चा 15 दिन से ज्यादा जीवित नहीं रहा। उन्होंने अपने इस ​दर्द को कई गजलों में भी बयां किया है। इस दुख से पार पाने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के भतीजे आरिफ को गोद ले लिया था, उसकी भी 35 साल की उम्र में तपेदिक से मौत हो गई। 

खुद को आधा ​मुस्लिम कहते थे गालिब
ग़ालिब साहब मुस्लिम थे, लेकिन शराब पीते थे और रमजान के दौरान रोजा भी नहीं रखते थे। 1857 में पहले विद्रोह के बाद जब पुलिस उनको पकड़कर ले गई और कर्नल बर्न के सामने उनसे उनकी पहचान पूछी गई तो उन्होंने कहा मैं आधा मुस्लिम हूं क्योंकि मैं शराब पीता हूं, लेकिन सुअर का मांस नहीं खाता हूं। 

ऐसे मिला मिर्ज़ा नाम
ग़ालिब बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार के प्रमुख शयरों में से एक थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए बादशाह ने उन्‍हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा था। बाद में उन्‍हें मिर्ज़ा नोशा क खिताब भी मिला। यहीं से उन्होंने अपने नाम के आगे मिर्ज़ा लगाना शुरु किया। इस सम्मान के बाद ही उनही गिनती मशहूर शायर में होने लगी। 

ऐसी थी उनकी गज़लें
उन्होंने फारसी और उर्दू रहस्यमय-रोमांटिक अंदाज में अनगिनत गजलें ल‍िखीं। उन्‍हें ज़‍िंदगी के फलसफे के बारे में बहुत कुछ ल‍िखा है। अपनी गज़लों में वो अपने महबूब से ज्‍यादा खुद की भावनाओं को तवज्‍जो देते हैं। ग़ालिब की ल‍िखी चिट्ठियां को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। हालांकि ये चिट्ठियां उनके समय में कहीं भी प्रकाश‍ित नहीं हुईं थीं। 

खाने के शौकीन थे मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ालिब साहब खाने पीने के बहुत शौकीन थे। वे नाश्ते में बादाम वाला दूध पिया करते थे। वह हर दिन फ्रेंच वाइन पीते थे। उन्हें मांस बहुत पसंद था, इसलिए हर दिन वे भूना गोश्त एवं सोहन हलवा खाना पसंद था। 

आम पसंदीदा फल
ग़ालिब साहब को आम बहुत पसंद थे। उनके दोस्त भी उन्हें उपहार में फल दिया ​करते थे। ग़ालिब साहब का आम से जुड़ा हुआ एक मशहूर किस्सा भी फेमस है। एक बार ग़ालिब आम खा रहे थे। आम खाकर उन्होंने छिलका फेंक दिया। तब एक सज्जन ऊधर से अपने गधे के साथ गुजरे। उनके गधे ने जमीन पर फेंके हुए छिलके को सूंघकर छोड़ दिया। सज्जन ने यह देखकर गालिब का मजाक उड़ाना चाहा और कहा देखो "गधे भी आम नहीं खाते" लेकिन गालिब की हाजिरजवाबी सज्जन पर भारी पड़ गई। गालिब ने तंज कसते हुए कहा, "गधे ही आम नहीं खाते"।

प्रमुख गज़लें

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

तुम सलामत रहो हजार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हजार

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
 

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