इंदिरा गांधी के आपातकाल की निरंकुशता से देश को कैसे मिला छुटकारा?
25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रह चुके नरेंद्र सहगल का कहना है कि आपातकाल के दौरान कांग्रेस को छोड़कर विपक्ष के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ढूंढ-ढूंढकर जेलों में ठूंस दिया गया था। गिरफ्तार होने वालों में 95 प्रतिशत आरएसएस के स्वयंसेवक थे। कैसे भूमिगत होकर तमाम कार्यकर्ताओं ने इंदिरा गांधी के आपातकाल का विरोध कर इससे देश को छुटकारा दिलाई, इस मुद्दे पर नरेंद्र सहगल ने एक लेख लिखकर विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। पढ़ें पूरा लेख-
नरेन्द्र सहगल
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून 1975 को समूचे देश में थोपा गया आपातकाल एक तरफा सरकारी अत्याचारों का पर्याय बन गया। इस सत्ता प्रायोजित आतंकवाद को समाप्त करने के लिए संघ के द्वारा संचालित किया गया सफल भूमिगत आन्दोलन इतिहास का एक महत्वपूर्ण पृष्ठ बन गया। सत्ता के इशारे पर बेकसूर जनता पर जुल्म ढा रही पुलिस की नजरों से बचकर भूमिगत आंदोलन का संचालन करना कितना कठिन हुआ होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
संविधान, संसद, न्यायालय, प्रेस, लोकमत और राजनीतिक शिष्टाचार इत्यादि की धज्जियां उड़ा कर देश में आपातकाल की घोषणा का सीधा अर्थ था निरंकुश सत्ता की स्थापना अर्थात, वकील, दलील और अपील सब समाप्त और उधर इस सरकारी अत्याचार के विरुद्ध देशवासियों द्वारा सड़कों पर उतर कर सत्ता प्रेरित दहशतगर्दी के विरुद्ध संगठित जन संघर्ष का बिगुल बजाने का सीधा अर्थ था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
राष्ट्रवादी कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की यह पंक्ति सत्याग्रहियों का महामंत्र बन गई थी। देश के विभाजन (स्वतंत्रता) के पूर्व जिस तरह से वन्देमातरम गीत स्वतंत्रता सेनानियों को सर्वस्व त्याग की प्रेरणा देता था उसी प्रकार इस गीत ने देशवासियों को तगड़ा अहिंसक प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। यह प्रतिकार देश के प्रत्येक कोने में जम कर हुआ। एक तरफा पुलिसिया कहर भी राष्ट्र भक्ति के इस युवा उफान को रोक नही सका। देश भर की जेले लक्षावधि सत्याग्रहियों के लिए छोटी पड़ गई। जेलों के अंदर खुले मैदान में तम्बू लगा दिए गये। दृश्य ऐसा था मानो किसी कुम्भ के मेले में तीर्थ यात्री ठहरे हों।
सार्वजनिक स्थानों का सरकारी आज्ञायों ( दफा 144 इत्यादि ) का खुला उलंघन करके, गिरफ्तार होकर पुलिस हिरासत में यातनाएं सहकर, पुलिस की गाड़ियों में भेड़ बकरियों की तरह ठूस कर, रात के अंधेरे में सत्याग्रही जब जेल के निकट पहुंचते थे तो उनके गगन भेदी उद्घोषों से सारी बस्ती और पहले से ही जेल में पहुंचे हुए सत्याग्रही जाग जाते थे। खोलो-खोलो जेल के फाटक- सरफरोशी आए हैं, भारत माता की जय, इन्कलाब जिंदाबाद, समग्र क्रान्ति अमर रहे इत्यादि नारे जेल के अंदर से भी गूंज उठते थे। तिहाड़ जेल दिल्ली में तीन हजार से ज्यादा सत्याग्रही बंद थे।
देश भर की जेलों में कांग्रेस को छोड़ कर शेष सभी विपक्षी दलों के लोग थे। सबसे ज्यादा संख्या लगभग 95 प्रतिशत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। सभी सत्याग्रही लोक संघर्ष समिति और युवा छात्र संघर्ष समिति के नाम और झण्डे तले अपनी गतिविधियों को अंजाम देते थे। जेलों में पहुंच कर भी सभी ने समरसता, एकता एवं अनुशासन का परिचय दिया। विभिन्न दलों तथा विचारों के सत्याग्रहियों का एक ही उद्देश्य था तानाशाही को समाप्त करके लोकतंत्र की पुन: बहाली करना।
जेल यात्रा करने वाले राजनीतिक कैदियों की कई श्रेणियां थी। प्रथम श्रेणी उनकी थी जिन्हें 25 जून 1975 की रात्रि को ही घरों से निकल कर गिरफ्तार कर लिया गया था। जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सुरेन्द्र मोहन, प्रकाश सिंह बादल इत्यादि बड़े -बड़े सैकड़ों नेताओं के साथ लगभग 20 हजार कार्यकर्ताओं को मीसा (मेनटेनैंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) के तहत देश की विभन्न जेलों में डाल दिया गया।
दूसरी श्रेणी उन लोगों की थी जो भूमिगत रह कर सारे आन्दोलन का संचालन कर रहे थे। ऐसे लोगों को पकड़ने के लिए पुलिस को बहुत परिश्रम करना पड़ता था। इन कार्यकर्ताओं ने अपने ठहरने, इत्यादि के गुप्त ठिकाने बनाए हुए थे। ऐसे भूमिगत कार्यकर्ता अपने घरों में न ठहर कर अपने मित्रों, दूर के रिश्तेदारों और होटलों में रह कर जन आन्दोलन की गतिविधियों का संचालन करते थे। इस तरह से गिरफ्तार होने वालों की संख्या बहुत कम थी। इनमें ज्यादातर तो संघ के प्रचारक ही थे जिनके नाम, स्थान, ठिकाने की जानकारी लेना पुलिस के लिए भारी सिर दर्द बन गया था। सब ने अपने नाम, वेश- भूषा, भाषा इत्यादि बदल लिए थे।
जेलों में बंद इन स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी श्रेणी वह थी जो योजनाबद्ध सार्वजनिक स्थानों पर सत्याग्रह करके जेलों में जाते थे। ऐसे लोगो की संख्या लगभग 2 लाख थी। इनकी संख्या के कारण ही जेल प्रशासन को तंबू लगाने की आवश्यकता पड़ी। इन्हीं सत्याग्रहियों ने वास्तव में प्रत्येक प्रकार के कष्टों को सह कर तानाशाही सरकार को घुटने टेकने के लिए बाध्य कर दिया था। इस श्रेणी के स्वतंत्रता सेनानी 15 वर्ष से 25 वर्ष तक की आयु के युवा विद्यार्थी थे। संघ की शाखाओं से राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पण की भावना से संस्कारित इन युवाओं की मस्ती भी देखने योग्य थी।
उपरोक्त तीन श्रेणियों के अतिरिक्त एक ऐसी श्रेणी भी थी, जिसने ना तो भूमिगत रह कर आन्दोलन के लिए कोई काम किया और ना ही सत्याग्रह करके जेल गए। आपातकाल की घोषणा होते ही यह लोग हरिद्वार इत्यादि स्थानों पर जा छिपे, अपने रिश्तेदारों के घरो में चल गये, कुछ विदेश भाग गए और अपने सुरक्षित बिलों में राम- राम जपने लग गए। यद्यपि ऐसे भीरु लोगों की संख्या नगण्य ही थी तो भी इनमें से अधिकांश को पुलिस वालों ने ढूंढ-ढूंढ कर गिरफ्तार करके जबरन जेल यात्रा करवा दी।
आन्दोलनकरियों की एक पांचवी श्रेणी थी जो भूमिगत रह कर आंदोलन का संचालन करते रहे, जेल में गए अपने साथियों के परिवारों की देखरेख करते रहे। ऐसे भूमिगत कार्यकर्ता अंतिम दम तक पुलिस के हाथ नहीं आए। इन लोगों के संगठन कौशल, सूझ-बूझ और बुद्धिमत्ता का लोहा सभी ने स्वीकार किया। ऐसे संघ के अखिल भारतीय अधिकारी नेताओं के प्रयासों से ही जनता दल अस्तित्व में आया था।
जेल यात्रा करने वाले कार्यकर्ताओं की जेल में आदर्श, अद्भुत मस्ती भरी दिनचर्या का उल्लेख किये बिना यह लेख अधूरा ही रह जाएगा। प्रात: से रात्रि तक शारीरिक एवं बौद्धिक कार्यक्रमों में व्यस्त आनंदपूर्वक रहने वाले इन सरफरोशियों ने जेल को एक अनिश्चित कालीन प्रशिक्षण शिविर बना दिया।
प्रात: सामूहिक प्रात: स्मरण एवं प्रार्थना, एक साथ आसन, प्रणायाम, रोचक व्यायाम, स्नान के बाद आरती, फिर अल्पाहार, हवन अथवा रामायण पाठ, सहभोज, विश्राम के बाद नित्य प्रवचन अथवा बौद्धिक वर्ग, सायं को शाखा कार्यक्रम, रात्रि भोजन के पश्चात नियमित भजन कीर्तन, इस तरह से जेल यात्रा में भी तीर्थ यात्रा का आनंद लेते हुए इन सरफरोशी कार्यकर्ताओं ने एक साथ सामूहिक जीवन जीने और अपने संस्थागत संस्कारों भी निंरतरता बरकरार रखी। जेल के बाहर भूमिगत कार्यकर्ताओं की तपस्या और जेल में बंद कार्यकर्ताओं की आनंदमयी साधना के फलस्वरूप देश को आपातकाल की निरंकुशता से छुटकारा मिल गया।
Created On :   24 Jun 2020 8:31 PM IST