#kargil war 18 साल : जब सुबह 3.30 बजे लहराया चोटी पर तिरंगा

Kargil Vijay Diwas today, The martyrs will pay their tributes in dehli at india gate
#kargil war 18 साल : जब सुबह 3.30 बजे लहराया चोटी पर तिरंगा
#kargil war 18 साल : जब सुबह 3.30 बजे लहराया चोटी पर तिरंगा

डिजिटल डेस्क,भोपाल। kargil war को हुए आज (बुधवार) को 18 साल पूरे हो गए हैं। आज ही के दिन हमारे जवानों ने 60 दिनों चली लम्बी लड़ाई के बाद दुश्मनों को धूल चटाकर युद्ध जीता था। kargil war में भारतीय सेना ने दुश्मनों के छक्के छुड़ाते हुए सभी भारतीय सीमा चौंकियों को अपने कब्जे में लेकर तिरंगा फहराया था। इस लड़ाई के चार प्रमुख नायकों को पूरा देश आज भी याद करता है, उन्हीं में से एक कैप्टन बत्रा ने एक चौंकी पर सुबह 3.30 बजे तिरंगा फहराने के बाद रेडियो पर देश के नाम संदेश प्रसारित करते हुए कहा था "यह दिल मांगे मोर"। जानिए कारगिल वार के इन "रियल हीरोज" के बारे में। 

देश के शहीदों की शहादत के सम्मान में ही 26 जुलाई को "kargil vijay divas" के रूप में मनाया जाता हैं। आज पूरे देश में शहीदो की याद में कई कार्यक्रम रखें गए हैं। दिल्ली के इंडिया गेट में पीएम नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने वीरों को श्रद्धांजलि दी। तीनों सेना प्रमुखों ने भी शहीद हुए अपने बहादुर जवानों को श्रद्धाजलि दी है। kargil war में सेना के उत्तरी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल देवराज अनबू के साथ शहीद हुए जवानों के परिवार वालों को करगिल के वीरों को अपना श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे।
 

देश के लिए 527 जवानों ने दिया बलिदान

1999 के मई महीने भारत-पाकिस्तान के बीच ये लड़ाई कश्मीर के कारगिल जिले से शुरू हुई। यद्ध का कारण पाक से सेना और उके समर्थक आतंकियों का लाईन ऑफ कंट्रोल (LOC) में घुस आना था। पाकिस्तान ने LOC पारकर भारत के एक महत्वपूर्ण भाग सियाचिन-ग्लेशियर पर कब्जा कर लिया था। 60 दिन चले इस kargil war में भारतीय थलसेना और वायुसेना ने LOC पार न करते हुए भारत सीमा में घुसे दुश्मनों को धूल चटाई। इसमें हमारे लगभग 527 से अधिक वीर योद्धा शहीद और 1300 से ज्यादा से जवान घायल हुए। इन शहीदों ने भारतीय सेना की शौर्य गाथा में एक और अध्याय लिखा।

क्यों पाक ने लांघी सीमा

1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद भी कई सैन्य संघर्ष हुए। दोनों देशों द्वारा परमाणु परीक्षण के कारण तनाव और बढ़ गया था। हालात को काबू में रखने के लिए दोनों देशों ने फरवरी 1999 में लाहौर में घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कश्मीर मुद्दे को द्विपक्षीय वार्ता द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का वादा किया गया था। लेकिन पाकिस्तान ने अपने सैनिकों और अर्ध-सैनिक बलों को छिपाकर नियंत्रण रेखा के पार भेजने लगा और इस घुसपैठ का नाम "ऑपरेशन बद्र" रखा था। इसका मुख्य उद्देश्य कश्मीर और लद्दाख के बीच की कड़ी को तोड़ना और भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से हटाना था। पाकिस्तान ये भी मानता है कि इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के तनाव से कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने में मदद मिलेगी। 

शुरुआत में इसे घुसपैठ मानते हुए दावा किया गया कि कुछ ही दिनों में खदेड़ दिया जाएगा। लेकिन नियंत्रण रेखा में धीरे-धीरे स्थिति साफ होने लगी और घुसपैठियों की युद्ध रणनीति से भारतीय सेना को अहसास हो गया था कि हमले की योजना बहुत बड़े पैमाने पर है। इसके बाद ही भारत सरकार ने "ऑपरेशन विजय" नाम से 2,00,000 सैनिकों को भेजा। ये युद्ध आधिकारिक रूप से 26 जुलाई 1999 को खत्म हुआ।

 ये हैं जीत के "रियल हीरोज" 

कैप्टन विक्रम बत्रा "यह दिल मांगे मोर"- कैप्टन विक्रम बत्रा की टुकड़ी 1 जून 1999 को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प और राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में लेकर फहरा दिया। शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष "यह दिल मांगे मोर" कहा तो सेना ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया।

इसी दौरान विक्रम के कोड नाम "शेरशाह" के साथ ही उन्हें "कारगिल का शेर" की भी संज्ञा दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया, तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।

मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने एक अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिए लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी छाती में गोली लगी और वो "जय माता दी" कहते हुए शहीद हो गए। साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को "परमवीर चक्र" से नवाजा गया, जो उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया।

मनोज कुमार पांडेय- लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय को युद्ध के लिए 2-3 जुलाई 1999 को कूच किया, जब उनकी बटालियन की बी कंपनी को खालूबार को फतह करने का जिम्मा सौंपा गया। मनोज पांचवें नंबर के प्लाटून कमांडर थे। उन्हें इस कंपनी की अगुवाई करते हुए मोर्चे की ओर बढ़ना था। जैसे ही ये कंपनी बढ़ी वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरह की पहाड़ियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ा। वहां दुश्मन के बंकर बाकायदा बने हुए थे।

मनोज ने निडर होकर एक के बाद एक चार दुश्मनों को मार गिराया। इसमें उनके कंधे और टांगे तक घायल हो गईं। एक बाद एक सारे बंकरो को नष्ट करते हुए जब उन्होंने चौथे बंकर पर ग्रेनेड फेंका तो बंकर की तबाही के साथ-साथ वो भी बुरी तरह जख्मी होने से उसी समय धराशायी हो गए। मनोज की अगुवाई में हुई सैन्य कार्यवाही में दुश्मन के 11 जवान मारे गए और छह बंकर भारत की इस टुकड़ी के हाथ आए। उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी मनोज की टुकड़ी के कब्जे में आया था। उसमें एक एयर डिफेंस गन भी थी। 6 बंकर कब्जे में आ जाने के बाद तो फतह सामने थी और देखते ही देखते खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था।

संजय कुमार- राइफलमैन संजय कुमार कारगिल युद्ध के दौरान 4 जुलाई 1999 को फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 की ओर बढ़े। राइफल मैन संजय ने इच्छा जताई कि वो अपनी टुकड़ी के साथ अगली पंक्ति में रहेंगे। संजय जब हमले के लिए आगे बढ़े, तो एक जगह से दुश्मन ने ऑटोमेटिक गन से जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी। टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संजय ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक कमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने एकाएक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन दुश्मन को मार गिराया और उसी जोश में गोलाबारी करते हुए दूसरे ठिकाने की ओर बढ़े।

राइफल मैन इस मुठभेड़ में खुद भी लहूलुहान हो गए थे, लेकिन अपनी ओर से बेपरवाह वह दुश्मन पर टूट पड़े। इस आकस्मिक आक्रमण से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। संजय कुमार ने वो गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया। संजय के इस चमत्कारिक कारनामे से उसकी टुकड़ी के दूसरे जवान भी बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने बेहद फुर्ती से दुश्मन के दूसरे ठिकानों पर धावा बोल दिया। इस दौर में संजय कुमार खून से लथपथ हो गए थे, लेकिन वो रण छोड़ने को तैयार नहीं थे और वह तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक वह प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। इस तरह राइफल मैन संजय कुमार ने अपने अभियान में जीत हासिल की।

योगेंद्र सिंह यादव-सबसे कम आयु में "परमवीर चक्र" प्राप्त करने वाले इस वीर योगेन्द्र सिंह यादव का गिल युद्ध में बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो प्लाटून "घटक" कहलाती थी, जिसके पास टाइगर हिल" पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य ये था कि वो ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले लिया। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था।

इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा खुद ही योगेंद्र ने लिया और रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊंचाई पर ही पहुंचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियां उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गंभीरता को समझकर योगेंद्र ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते-बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेंद्र लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे, तभी एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं। बावजूद इसके वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उस मुठभेड़ में "टाइगर हिल" फतह हो गया था। उसमें योगेंद्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ने परमवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचाकर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है।

Created On :   26 July 2017 3:34 AM GMT

और पढ़ेंकम पढ़ें
Next Story