हर क्षेत्र में पाया ‘यश’, अब सियासत का ‘अंत’, जानिए यशवंत सिन्हा के बारे में
डिजिटल डेस्क नई दिल्ली। कभी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा भाजपा की मौजूदा परिस्थितियों से तालमेल नहीं बिठा पाए। लंबे समय तक प्रधानमंत्री मोदी और अरुण जेटली से चले शीत युद्ध के बाद उन्होंने पूरे 22 साल बाद भाजपा को गुड बाय कह दिया। यशवंत सिन्हा उन भाग्यशाली लोगों में से हैं, जिन्होंने जीवन भर सत्ता का सुख भोगा है। उनकी तुलना वीसी शुक्ल से की जा सकती है। उनका कोई स्थाई दोस्त और स्थाई ठिकाना नही रहा। हालांकि उनका सबसे ज्यादा वक्त भाजपा में बीता है।
1985 तक यशवंत सिन्हा आईएएस थे, बिहार में कर्पूरी ठाकुर के CM रहते सिन्हा ने अपनी इमेज गरीबों के शुभचिंतक की बनाई। वे साइकिल से दफ्तर जाते थे। सिन्हा वक्त के साथ चलने और ढलने में माहिर रहे हैं। 1960 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुने गए सिन्हा ने 1984 में नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद वे जनता पार्टी में शामिल हो गए और अखिल भारतीय महासचिव भी बन गए। 1988 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया। बोफोर्स कांड के बाद जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी की सरकार हिलाई तो सिन्हा उनके जनमोर्चा और जनता दल में शामिल हो गए।
सिन्हा की फितरत और अतिमहत्वकांक्षा इस बात से जाहिर होती है कि उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री बनने से इंकार कर दिया और गुस्सा इतना दिखाया कि वे VP सिंह के शपथ समारोह में भी शामिल नहीं हुए। करीब 2 साल चली VP सिंह सरकार से जब चंद्रशेखर ने बगावत की और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई यशवंत चंद्रशेखर के झंडाबरदार बने। चंद्रशेखर ने उन्हें देश का वित्त मंत्री बना दिया जब चंद्रशेखर ने सत्ता संभाली थी तब देश भारी कर्जे में डूबा था, तब यशवंत सिन्हा के वित्त मंत्री कार्यकाल में ही भारत का सोना गिरवी रखने का फैसला लिया गया। जब चंद्रशेखर सरकार गिर गई तो कुछ समय तक यशवंत गुमनामी में रहे।
नौकरशाही में लंबे अनुभव के कारण सिन्हा को लग गया था कि चंद्रशेखर के साथ जुड़े रहने का आगे कोई फायदा नहीं मिलेगा। उन्होंने उस वक्त भाजपा के सबसे दमदार नेता लालकृष्ण आडवाणी से दोस्ती कर ली। इसके बाद लोकसभा के सदस्य बने नतीजा यह हुआ कि जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनी तो वित्त मंत्री के रूप में यशवंत सिन्हा अटल जी की पसंद बन कर उभरे। हालांकि सिन्हा के कारण ही तब अटल जी से सुब्रमण्यम स्वामी काफी नाराज हो गए थे और यही वजह थी कि उन्होंने 1998 में सोनिया गांधी और जयललिता के साथ मिलकर 1 वोट से अटल जी की सरकार गिरवा दी थी।
बाद में यशवंत सिन्हा को विदेश मंत्री भी बनाया गया। यशवंत सिन्हा राजनीति के चतुर सुजान निकले। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी अपनी पैठ बना ली और तत्कालीन संघ प्रमुख के एस सुदर्शन से अपने नाम की सिफारिश करवाई। वित्त मंत्री रहते उन्होंने संघ के स्वदेशी जागरण मंच की तमाम मांगों को लेकर श्रम कानूनों में सुधार के प्रस्ताव रखे और विनिवेश को बढ़ावा दिया। जब उनकी वित्त मंत्री पद से विदाई हुई तो उसके ठीक पहले उन्होंने दफ्तर जाना छोड़ दिया था। छोटी-छोटी बात पर रूठ जाना उनकी पुरानी आदत रही है। ऐसा जनमोर्चा की वीपी सिंह सरकार से लेकर 2014 में बनी मोदी सरकार तक यशवंत सिन्हा के आचरण को लेकर देखा जा सकता है। अटल सरकार में वित्त मंत्री पद से हटाकर उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया था तब जाकर वह शांत हुए थे।
2004 के लोकसभा चुनाव में यशवंत सिन्हा हार गए थे और 2005 में जैसे ही लालकृष्ण आडवाणी ने मोहम्मद अली जिन्ना को सेकुलर बताकर संघ की नाराजगी ली तो यशवंत ने आडवाणी से दूरियां बना ली। इसी बीच 2012 में जब राजनाथ सिंह भाजपा अध्यक्ष बने तो यशवंत में उनसे नजदीकी बढ़ा ली। इसी दौरान उन्होंने 2014 में अपने बेटे जयंत सिन्हा को भी टिकट दिला दिया। नतीजा यह हुआ कि मोदी और जेटली की जोड़ी ने यशवंत सिन्हा की बजाय विदेश से पढ़कर लौटे और वित्तीय मामलों के जानकार जयंत सिन्हा को राज्य मंत्री बना दिया। इसके बाद फिर खुद के लिए ब्रिक्स बैंक में बड़ा पद चाहते थे। वक्त निकलता गया और धीरे-धीरे यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा के साथ मिलकर सीधे मोदी पर निशाना साधने लगे। देखा जाए तो सिन्हा की राजनीति और इतिहास मौकापरस्ती का रहा है।
Created On :   21 April 2018 6:24 PM IST