दिल्ली के अलावा 13 राज्यों में चल रहा 'लाभ का पद', सोनिया-जया भी हुईं शिकार
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। लाभ का पद के चक्कर में आम आदमी पार्टी के 20 विधायक राष्ट्रपति द्वारा अयोग्य करार दिए गए हैं। लाभ के पद के उल्लंघन के मामले में 19 जनवरी को चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति से सदस्यता रद्द करने की सिफारिश की थी, जिसे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने आज 21 जनवरी को मंज़ूरी दे दी है। अब 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल सरकार के पास 66 विधायक थे। अभी भी आम आदमी पार्टी के पास 46 विधायक रहेंगे जो कि सामान्य बहुमत से 10 ज़्यादा है।
सरल भाषा में जानें "लाभ का पद"
लाभ का पद को अगर सरल भाषा में समझें तो इसका मतलब होता है, "जब कोई व्यक्ति सांसद या विधायक रहते हुए अन्य किसी पद पर भी कार्य कर रहा हो, जहां से उसे दूसरी इनकम हो रही हो तो इसे लाभ का पद कहा जाता है।" संविधान की बाद करें तो आर्टिकल 102 (1) (A) में लाभ का पद (ऑफिस ऑफ प्रॉफिट) का जिक्र किया गया है। आर्टिकल 191(1)(A) के तहत सांसद-विधायक दूसरा पद नहीं ले सकते हैं। इसके अनुसार सांसद या विधायक 2 अलग-अलग लाभ के पद पर कार्य नहीं कर सकता है।
सोनिया गांधी हुईं शिकार
ऐसा नहीं है कि जनप्रतिनिधियों पर इस तरह की कोई पहली कार्रवाई हुई है। यूपीए-1 के समय 2006 में "लाभ के पद" का विवाद खड़ा होने की वजह से सोनिया गांधी को लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर रायबरेली से दोबारा चुनाव लड़ना पड़ा था। सांसद होने के साथ सोनिया को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का चेयरमैन बनाए जाने से लाभ के पद का मामला बन गया था।
जया बच्चन ने भी लिया था लाभ का पद
इसी तरह 2006 में ही जया बच्चन पर भी आरोप लगा कि वह राज्यसभा सांसद होने के साथ-साथ यूपी फिल्म विकास निगम की चेयरमैन भी हैं। इसे "लाभ का पद" माना गया और चुनाव आयोग्य ने जया बच्चन को अयोग्य ठहरा दिया। जया बच्चन ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। यहां भी उन्हें राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अगर किसी सांसद या विधायक ने "लाभ का पद" लिया है तो उसकी सदस्यता जाएगी चाहे उसने वेतन या दूसरे भत्ते लिए हों या नहीं।
भारत के 13 राज्यों में भी चल रहे लाभ के पद
बताया जा रहा है कि भारत के 13 राज्य इस मामले में फंसे हुए हैं। विवाद जारी है। कुछ मामले हाईकोर्ट में हैं। कुछ राज्यों ने कानून बनाकर लाभ के पद को बिना लाभ का पद घोषित कर दिया। अब इस पर भी विवाद है। सवाल यह उठ रहा है कि दिल्ली के मामले में ही चुनाव आयोग ने उतावलापन क्यों दिखाया।
छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार भी विधायकों को संसदीय सचिव पद पर नियुक्त करने को लेकर विवादों से घिर चुके है। बीजेपी के 11 विधायकों को राज्य सरकार ने ऐसे पद पर नियुक्त किया था।
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने 24 विधायकों की संसदीय सचिव के तौर पर नियुक्ति की थी। मामला सुप्रीम कोर्ट में विधाचाराधीन है।
हरियाणा व पंजाब : पिछले साल जुलाई में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने हरियाणा चार विधायकों की मुख्य संसदीय सचिव के पद पर हुई नियुक्तियों के एक पुराने मामले में इन्हें असंवैधिनिक करार दिया था। जबकि पंजाब की अकाली दल व बीजेपी सरकार के 18 विधायकों के इसी पद को खत्म किया था। बाद में इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में स्टे के लिए अर्जी दी गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे लगाने से मना कर दिया है।
कर्नाटक सरकार ने 11 विधायक और विधान परिषद सदस्यों को संसदीय सचिव के तौर पर नियुक्ति की थी। मामला वहां की हाईकोर्ट में विचाराधीन है।
राजस्थान सरकार ने इसी धारा पर चलते हुए 10 संसदीय सचिवों की नियुक्ति की थी। वे राज्य मंत्री के स्तर का दर्जा प्राप्त हैं। इसके लिए अक्तूबर 2017 में एक कानून भी पास करा लिया गया। इसे वहां की हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है।
ओडिशा सरकार ने साल 2016 में 20 विधायकों की नियुक्ति जिला योजना समति के प्रमुख के तौर पर की थी और इन्हें राज्य मंत्री की हैसियत की सुविधाएं मिलने लगी थीं, इसके वहां एक कानून में संशोधन किया गया था। इन सभी विधायकों को गाड़ी और सचिव सहायक की सुविधाएं मिल रही हैं पर इन्हें कोई अतिरिक्त वेतनमान नहीं मिलता।
तेलंगाना सरकार ने छह विधायकों को संसदी सचिव बनाया था। साल 2014 में कानून बनाकर इन विधायकों को केंद्रीय मंत्री का सा दर्जा दिला दिया था। साल 2016 में हाईकोर्ट ने इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया।
पूर्वी भारत के 5 प्रदेश में नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश दोनों में 26-26 संसदीय सचिव रहे। साल 2004 में असम हाईकोर्ट ने इन पदों को असंवैधानिक बताया था। इसके बाद मणिपुर से भी 11 और मिजोरम से 7 संसचीय सचिवों ने इस्तीफा दिया था। इसी तरह के मेघालय हाईकोर्ट के एक फैसले में मेघालय के 17 संसदीय सचिवों को अवैध ठहराया था, जिसके बाद उन सभी इस्तीफा दे दिया था।
Created On :   21 Jan 2018 5:38 PM IST