सैम मनिक्शॉ : 13 दिनों में पाकिस्तान को चटा दी थी धूल, इंदिरा को भी बोलते थे 'स्वीटी'
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। सैम मनिक्शॉ, एक ऐसा शख्स, जिसका नाम सुनते ही 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध याद आ जाता है। 1971 में सैम मनिक्शॉ भारतीय सेना के अध्यक्ष थे और इन्होंने 13 दिनों के अंदर पाकिस्तान को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था। सैम मनिक्शॉ जिनको सैम बहादुर के नाम से भी जाना जाता है। सैम बहादुर को 1969 में भारतीय सेना का अध्यक्ष बनाया गया था। इन्हीं की लीडरशीप में भारत ने 1971 की लड़ाई जीती थी। 1965 में भी जब भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था तब सैम बहादुर ने ही इंडियन आर्मी, नेवी और एयरफोर्स के बीच कॉर्डीनेशन बनाकर पाकिस्तान को चारों खाने चित कर दिया । सैम बहादुर पहले ऐसे आर्मी मैन हैं जिन्हें फिल्ड मार्शल की उपाधि से नवाजा गया था। उसी सैम बहादुर का आज जन्मदिन है और इस खास मौके पर हम आपको उनसे जुड़ी कुछ ऐसी बातें बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में आप शायद ही जानते हों।
नाम के पीछे भी है एक रोचक कहानी
सैम मनिक्शॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी फैमिली में हुआ था। उनके पिता का नाम होर्मूसजी मनिक्शॉ और मां का नाम हीराबाई था। सैम मनिक्शॉ को पहले साइरस के नाम से जाना जाता था, लेकिन उनकी चाची ने सुना था कि जिन पारसियों का नाम साइरस होता है उन्हें जेल भेज दिया जाता है। इसलिए उन्होंने उनका नाम सैम रखा। सैम का पूरा नाम सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मनिक्शॉ था, लेकिन बाद में उन्हें सैम बहादुर के नाम से जाना जाने लगा।
आर्मी मैन नहीं डॉक्टर बनना चाहते थे सैम बहादुर
सैम बहादुर का सपना आर्मी में नहीं बल्कि डॉक्टर बनने का था। उनकी स्कूली पढ़ाई पंजाब के अमृतसर में हुई और आगे की पढ़ाई देहरादून के शेरवुड कॉलेज से हुई। इसके बाद सैम डॉक्टर की पढ़ाई करने के लिए लंदन जाना चाहते थे लेकिन उनके पिता ने उन्हें लंदन जाने से मना कर दिया। उसके बाद उन्होंने इंडियन मिलिट्री एकेडमी का एग्जाम दिया और 1 अक्टूबर 1932 को वो देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के पहले बैच के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे।
सिर्फ 13 दिनों में ही पाकिस्तान को चटवाई धूल
सैम बहादुर ने अपनी पहली लड़ाई दूसरे वर्ल्ड वॉर में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के अंडर में लड़ी थी। सैम बहादुर पहले भारतीय हैं जिन्हें फिल्ड मार्शल की उपाधि से नवाजा गया। 1969 में इन्हें इंडियन आर्मी का अध्यक्ष बनाया गया और इन्हीं की लीड़रशीप में भारत ने 1971 में इंडिया-पाकिस्तान बीच हुए युद्ध में लड़ाई लड़ी, जिस कारण बांग्लादेश का जन्म हुआ। 1971 के युद्ध में सैम बहादुर ने मात्र 13 दिनों में ही पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था।
9 गोलियां लगी, लेकिन नहीं मानी हार
सेकंड वर्ल्ड वार के दौरान सैम 4-12 फ्रंटीयर फोर्स रेजीमेंट के कैप्टन के रूप में बर्मा में तैनात थे। इसी दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानी सैनिकों से लड़ते हुए सैम बहादुर बुरी तरह घायल हो गए और उन्हें 9 गोलियां लग गई। गोलियां लगने के बाद भी सैम ने हार नहीं मानी और लगातार वो अपने सैनिकों को जापानी सैनिकों से लड़ने के लिए मोटीवेट करते रहे। जब डिवीजनल कमांडर सर कोवांस ने सैम की इस बहादुर का किस्सा सुना तो वो खुद युद्ध स्थल पर पहुंचे और अपना मिलिट्री क्रॉस सैम की छाती पर लगा दिया।
जब इंदिरा को बोला "स्वीटी"
1971 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ी तब उसके पहले तत्कालीन प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गाँधी ने सैम बहादुर से पूछा कि क्या आप इस युद्ध के लिए तैयार हैं। तब सैम ने मुस्कुराकर उन्हें जवाब दिया कि, मैं हमेशा तैयार रहता हूं, स्वीटी।
आखिरी भाषण देते वक्त इंदिरा को हो गया था मौत का एहसास !
सैम बहादुर के आखिरी शब्द "मैं ठीक हूं"
सैम ने अपनी आखिरी सांस 27 जून 2008 को तमिलनाडु के मिलिट्री अस्पताल में ली। उस समय वो 94 साल के थे। उनके आखिरी शब्द थे, "मैं ठीक हूं।" लेकिन जब वो शहीद हुए तो उन्हें उतना सम्मान नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। सैम मनिक्शॉ के फ्यूनरल में न ही तीनों सेना के प्रमुख आए और न ही रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी पहुंचे थे। 16 दिसंबर 2008 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सैम बहादुर की वर्दी पहने डाक टिकट जारी किया। 2009 के बाद से नीलगिरी डिस्ट्रीक्ट के पास मौजूद ऊटी-कन्नूर ब्रिज को सैम मनिक्शॉ ब्रिज के नाम से जाना जाता है।
Created On :   3 April 2018 11:43 AM IST