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जनजातीय गौरव दिवस: भगवान बिरसा मुंडा के आदर्शों से राष्ट्र निर्माण का संकल्प - शिवप्रकाश

डिजिटल डेस्क, भोपाल। ब्रिटिश हुकूमत ने जल, जंगल, जमीन, जनजाति पहचान व स्वतंत्रता पर संकट देखकर उसके रक्षण के लिए ब्रिटिश सत्ता के विरोध में “उलगुलान” आंदोलन करने वाले धरती आबा की उपाधि से विभूषित भगवान बिरसा मुंडा की यह 150वीं जयंती वर्ष है। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह किया और गिरफ्तार हुए। जेल में ही 9 जून 1900 को उनका बलिदान हो गया। उनकी स्मृति के अस्तित्व के लिए 15 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनजातीय गौरव दिवस घोषित किया है। बिरसा मुंडा ने दुर्व्यसनों रहित जीवन, अंधविश्वास से मुक्ति व अपनी भूमि के प्रति स्वाभिमान का भाव जनजाति समाज को सिखाया। उन्होंने शोषण के प्रति आवाज उठाई व बेगारी प्रथा का विरोध किया। ब्रिटिश सत्ता के लगान के विरोध में उलगुलान आंदोलन शुरु किया। उनका नारा था “अबुआ राज़ एते जाना, महारानी राज टुंडू जीना।” (हमारा शासन शुरू हो, रानी का शासन समाप्त हो।) जनजाति गौरव दिवस केवल बिरसा मुंडा ही नहीं, आदिवासी समाज के उन असंख्य महापुरुषों को समर्पित है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति के उत्थान एवं देश की स्वतंत्रता के लिए जीवन उत्सर्ग किया। नागालैंड की महारानी गाइडन्यू ने अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह किया और स्वधर्म के स्वाभिमान के लिए हरक्का आंदोलन चलाकर नागा समाज में मतांतरण का विरोध किया।
राजस्थान में जन्मे गोविंद गुरु भील समाज में अध्यात्म, समाज सुधार एवं शोषण के खिलाफ़ आंदोलन के प्रतीक बने। रानी दुर्गावती, तिलका माजी, अल्लूरी सीताराम राजू,कोरम भील, टाट्या भील, सिद्धू - कानू मुर्मू आदि जनजाति समाज के महानायकों के बिना भारतीय इतिहास अधूरा है। भारत इन महापुरुषों का हमेशा ऋणी रहेगा।
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साम्राज्यवादी यूरोपीय ताकतें जब दुनिया के देशों में साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा लेकर गयी तब उन्होंने वहां के मूल निवासियों का भीषण नरसंहार किया। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, न्यूजीलैंड आदि का इतिहास वीभत्स घटनाओं से भरा है। नरसंहार में साम्राज्यवादी ताकतों के शासन को स्थायित्व देने के लिए चर्च- मिशनरी भी शामिल हो गए। क्योंकि उन्होंने वहां के मूल निवासियों को खत्म करने का प्रयास किया था। इससे मूलनिवासियों की संख्या उन देशों में कम होती चली गई। भारत में इस षड्यंत्र को समझने के लिए उदाहरण स्वरूप मिशनरियों का संकल्प जिसको ईस्ट इंडिया कंपनी के वित्त मंत्री, बंगाल एवं मुंबई प्रेसिडेंसी में गवर्नर रहे रिचर्ड टेम्पल ने 1883 में लंदन में बेप्टिस्ट सोसाइटी के मध्य अपने भाषण में कहा था कि ब्रिटिश सत्ता को स्थायी बनाए रखने के लिये संकल्पित मिशनरियों को अपने प्रयास का केंद्र आदिवासियों को बनाना चाहिए, यह आदिम जातियां अपने मन एवं अंतःकरण से सफेद कागज की सतह प्रदान करती है, जिस पर आसानी से मिशनरी अपने चिह्न छोड़ सकती है।” मूल निवासियों की संख्या वृद्धि एवं पहचान को बनाये रखने के लिए 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 9 अगस्त को “ विश्व मूल निवासी दिवस” घोषित किया। भारत में षड्यंत्र के तहत मूल निवासी दिवस को आदिवासी दिवस नाम दे दिया। भारतीय जनजातीय समाज व अन्य सभी यहीं के मूल निवासी हैं। भारत में आदिवासियों पर कभी कोई अत्याचार नहीं हुए बल्कि वह भारतीय संस्कृति के संवाहक रहे हैं। इसलिए भारत में विश्व मूल निवासी दिवस की प्रासंगिकता नहीं लगती है।
जनजाति समाज में मतांतरण एवं अलगाव का भाव उत्पन्न करने के लिए नए-नए आंदोलन खड़े करने का प्रयास हो रहा है। 1994 की सीवीसीआई पुणे की सभा में बताया गया कि चर्च दलित मुक्ति आंदोलन, आदिवासी मुक्ति आंदोलन और पर्यावरण सुरक्षा जैसे विषयों पर मिशनरी सहयोग कर रहे हैं। विभेद पैदा करने के लिए यह आंदोलन दलित, आदिवासी, महिला, जल, जंगल, जमीन, जानवर एवं पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अलग-अलग समूहों द्वारा चलाए जा रहे है।
हम राम नहीं रावण के वंशज हैं, हमारे देवता महिषासुर है, हमारा धर्म अलग है, यह इसी षड़यंत्र का परिणाम है। इसमें अर्बन माओवाद व ऐसे ही विचारों से पोषित स्वैच्छिक एवं मानवाधिकारवादी समूह भी इस षड्यंत्र में जुड़ गए है। शोषण से मुक्ति के नाम पर नक्सलवाद ने भी हजारों युवकों को हिंसा के मार्ग पर धकेलकर आदिवासी समाज का विकास अवरुद्ध किया है।
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प्रकृति के प्रति श्रद्धा रखने वाला जनजाति समाज सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है। प्रकृति व भूमि के प्रति उसमें आगाध श्रद्धा है। सनातन संस्कृति में भी प्रकृति को पवित्र माना गया है। यह सर्व समावेश के लक्षण हैं। द्रौपदी के पांच पांडवपति से जोड़कर जौनसार जनजाति की बहुपति प्रथा, थारू जनजाति में हल्दीघाटी मिट्टी और धार के महाराजा भोज से बुक्सा जनजाति से संबंध को कैसे भुलाया जा सकता। जनजातीय समाज की जिस संस्कृति को जड़ात्मवादी कहा गया, वह जड़ात्मवादी नहीं सभी को एक और एक में सबके दर्शन करने वाली है । इसका विकास ऋषि- मुनियों के तप से होने के कारण एवं सभी संतों की तपस्थली जंगल (अरण्य) होने के कारण इसको अरण्य संस्कृति भी कहा गया है। इसी को जनजाति समाज ने संरक्षण दिया है।
जनजाति समाज के उत्थान के लिए भाजपा प्रतिबद्ध है। जब हम जनजाति गौरव दिवस मनाते हैं तो इसका अर्थ जनजाति समाज द्वारा भारत के विकास में योगदान का स्मरण करना हैं। अपनी एक संस्कृति है, सभी के महापुरुष समान है यह भाव विकसित कर विघातक षड़यंत्रों से जनजाति समाज को मुक्त करना है।
- लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री हैं।
Created On :   13 Nov 2025 7:24 PM IST













