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चर्चासत्र: फुले-शाहू-आंबेडकर के विचार प्रासंगिक
- क्रांति-प्रतिक्रांति पर दो दिवसीय राष्ट्रीय चर्चासत्र का समापन
- फुले-शाहू-आंबेडकर के विचार प्रासंगिक
डिजिटल डेस्क, नागपुर. विद्यापीठ के डॉ. बाबासाहब आंबेडकर अध्यासन विभाग द्वारा आयोजित ‘डॉ. आंबेडकर का ऐतिहासिक दृष्टिकोण: क्रांति और प्रतिक्रांति का सिद्धांत’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय चर्चा का रविवार को समापन हुआ। दो दिन चले चर्चासत्र के दौरान विविध सत्रों में क्रांति-प्रतिक्रांति का विश्लेषण कर उसका निचोड़ विद्यार्थी, संशोधक, सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने रखा गया। समापन कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए नागपुर विद्यापीठ, मराठी विभाग के प्रमुख डॉ. शैलेंद्र लेंडे ने कहा कि यह विषय मौजूदा समय में भी महत्वपूर्ण है। दो दिन तक क्रांति-प्रतिक्रांति से जुड़े विविध विषयों पर अलग-अलग चर्चा की गई। मुझे विश्वास है कि सभी वक्ताओं ने इस विषय को न्याय देने का प्रयास किया है। इससे पता चलता है कि फुले-शाहू-आंबेडकर के विचार आज भी कितने प्रासंगिक है।
भारत में मान्यता नहीं मिली : कार्यक्रम में मुख्य अतिथि व ब्रह्मपुरी स्थित डॉ. बाबासाहब आंबेडकर कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. देवेश कांबले ने क्रांति-प्रतिक्रांति की समीक्षा करते हुए कहा कि बाबासाहब का अन्य विषयों की तरह आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में भी बड़ा योगदान है। दुनियाभर में उन्हें एक अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री के रूप में मान्यता मिली, लेकिन अफसोस कि भारत में वह मान्यता नहीं मिल पाई है। मंच पर डॉ. आंबेडकर अध्यासन विभाग के अध्यक्ष प्रा. अविनाश फुलझेले उपस्थित थे।
बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है : इससे पहले दिनभर अनेक सत्र चले। नांदेड़ यूनिवर्सिटी के डॉ. दिलीप चव्हाण ने कहा कि बौद्ध धर्म के कारण ही प्रादेशिक भाषाओं का उदय हुआ है। बौद्ध धम्म के पतन में भिक्खु संघ का सफाया मुख्य कारण रहा। प्रचारकों की हत्या की गई। उसी तरह आज दाभोलकर, गौरी लंकेश जैसे बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है। गोंडवाना विद्यापीठ के डॉ. संतोष सुरड़कर ने कहा कि बुद्धिस्ट क्रांति के बाद ही सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति हुई। प्रतिक्रांति में महिला और शूद्रों का दमन हुआ। राजाश्रय जाने के बाद बौद्ध धर्म का पतन हुआ। यह सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष था। अगर राजनीतिक संघर्ष होता, तो यह पुष्यमित्र श्रृंग के शासनकाल में रुक जाता।
ओबीसी पर संशोधन नहीं हुआ
हिस्लॉप कॉलेज के डॉ. प्रो. अजय चौधरी ने कहा कि जिस तरह अनुसूचित जाति ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ने अनुसूचित जनजाति पर संशोधन किया, उस तरह का संशोधन ओबीसी पर नहीं हुआ है। सांगली के डॉ. सचिन गरुड़ ने कहा कि बुद्ध क्रांति के बाद आमूलाग्र बदलाव हुआ। वर्ण व्यवस्था पर जोरदार हमला और उस समय जाति व्यवस्था नहीं के बराबर रही। इस दौरान जलगांव के डॉ. देवेंद्र इंगले, मुंबई विद्यापीठ के डॉ. नारायण भोसले, अमरावती विद्यापीठ के डॉ. भगवान फाल्के ने भी अपने विचार रखे।
Created On :   23 Oct 2023 7:57 PM IST