राजमाता विजया राजे सिंधिया के जन्म शताब्दी समारोह के समापन के उपलक्ष्‍य में 100 रुपए के विशेष स्मारक सिक्के के विमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री के संबोधन का मूल पाठ

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राजमाता विजया राजे सिंधिया के जन्म शताब्दी समारोह के समापन के उपलक्ष्‍य में 100 रुपए के विशेष स्मारक सिक्के के विमोचन के अवसर पर प्रधानमंत्री के संबोधन का मूल पाठ

डिजिटल डेस्क, दिल्ली। नमस्कार! केंद्रीय मंत्रिमंडल के मेरे सभी सहयोगीगण, अलग-अलग राज्यों के राज्यपाल, मुख्यमंत्रीगण, देश-विदेश से जुड़े राजमाता विजयाराजे सिंधिया जी के प्रशंसक एवं परिवार के सदस्य, उनके स्नेही और मेरे प्रिय भाइयों और बहनों। आज यहां इस कार्यक्रम में आने से पहले मैं विजयराजे जी की ये जीवनी को जरा खंगाल रहा था। कुछ पन्‍नों पर मेरी नजर गई। उसमें एक प्रसंग है एकता यात्रा का जिसमें उन्होंने मेरा परिचय गुजरात के युवा नेता नरेंद्र मोदी के तौर पर करवाया है। आज इतने वर्षों बाद, उनका वही नरेंद्र, देश का प्रधानसेवक बनकर, उनकी अनेक स्मृतियों के साथ आज आपके सामने है। आपको पता होगा जब कन्‍याकुमारी से कश्‍मीर- एक यात्रा का प्रारंभ हुआ था डॉक्‍टर मुरली मनोहर जोशीजी के नेतृत्‍व में, और मैं व्‍यवस्‍था देख रहा था। राजमाता जी उस कार्यक्रम के लिए कन्‍याकुमारी आई थीं। और बाद में जब हम श्रीनगर जा रहे थे जम्‍मू में विदाई देने भी आई थीं। और उन्‍होंने लगातार हमारा हौसला बुलंद किया था। तब हमारा सपना था लाल चौक में झंडा फहराना, हमारा मकसद था धारा- 370 से मुक्ति मिल जाए। राजमाता जी ने उस यात्रा को विदाई दी थी। जो सपना था वो पूरा हो गया। आज जब मैं पुस्‍तक में और भी चीजें देख रहा था पुस्तक में एक जगह उन्होंने लिखा है- “एक दिन ये शरीर यहीं रह जाएगा, आत्मा जहां से आई है वहीं चली जाएगी.. शून्य से शून्य में। स्मृतियां रह जाएंगी। अपनी इन स्मृतियों को मैं उनके लिए छोड़ जाऊंगी जिनसे मेरा सरोकार रहा है, जिनकी मैं सरोकार रही हूं।‘’ आज राजमाता जी जहां भी हैं, हमें देख रही हैं, हमें आशीर्वाद दे रही हैं। हम सभी लोग जिनका उनसे सरोकार रहा है, जिनकी वो सरोकार रही हैं, वो यहां इस विशेष कार्यक्रम में कुछ लोग पहुंच भी पाए हैं और मौजूद भी हैं, और देश के अनेक भागों में, कोने-कोने में आज ये अवसर वर्चुअली मनाया जा रहा है। हममें से कई लोगों को उनसे बहुत करीब से जुड़ने का, उनकी सेवा, उनके वात्सल्य को अनुभव करने का सौभाग्य मिला है। आज उनके परिवार के, उनके निकट संबंधी इस कार्यक्रम में हैं लेकिन उनके लिए हम सब, हर देशवासी उनका परिवार ही था। राजमाता जी कहती भी थीं- “मैं एक पुत्र की नहीं, मैं तो सहस्रों पुत्रों की मां हूं, उनके प्रेम में आकंठ डूबी रहती हूं।‘’ हम सब उनके पुत्र-पुत्रियां ही हैं, उनका परिवार ही हैं। इसलिए ये मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य है कि मुझे राजमाता विजयाराजे सिंधिया जी की स्मृति में 100 रुपए के विशेष स्मारक सिक्के का विमोचन करने का अवसर मिला है। हालांकि मैं खुद को आज बंधा हुआ महसूस कर रहा हूं, बहुत बंधा हुआ महसूस कर रहा हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि अगर कोरोना महामारी नहीं होती तो आज इस कार्यक्रम का स्वरूप कितना बड़ा होता, कितना भव्य होता। लेकिन ये बात मैं जरूर मानता हूं जितना मेरा राजमाता साहब के साथ संपर्क रहा है, कार्यक्रम भव्‍य तो नहीं कर पा रहे लेकिन ये कार्यक्रम दिव्‍य ज़रूर है, उसमें दिव्‍यता है। साथियों, पिछली शताब्दी में भारत को दिशा देने वाले कुछ एक व्यक्तित्वों में राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी शामिल थीं। राजमाताजी केवल वात्सल्यमूर्ति ही नहीं थीं, वो एक निर्णायक नेता थीं और कुशल प्रशासक भी थीं। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आजादी के इतने दशकों तक, भारतीय राजनीति के हर अहम पड़ाव की वो साक्षी रहीं। आजादी से पहले विदेशी वस्त्रों की होली जलाने से लेकर आपातकाल और राम मंदिर आंदोलन तक, राजमाता के अनुभवों का व्यापक विस्तार रहा है। हम सभी जो उनसे जुड़े रहे हैं, जो उनके करीबी रहे हैं, वो उन्हें भली-भांति जानते हैं, उनसे जुड़ी बातों को अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन ये भी बहुत जरूरी है कि राजमाता की जीवन यात्रा को, उनके जीवन संदेश को देश की आज की पीढ़ी भी जाने, उनसे प्रेरणा ले, उनसे सीखे। इसलिए उनके बारे में, उनके अनुभवों के बारे में बार-बार बात करना आवश्यक है। कुछ दिन पहले ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मैंने बहुत विस्तार से उनके स्नेह पर चर्चा की थी। विवाह से पहले राजमाताजी किसी राजपरिवार से नहीं थीं, एक सामान्‍य परिवार से थीं। लेकिन विवाह के बाद उन्होंने सबको अपना भी बनाया और ये पाठ भी पढ़ाया कि जनसेवा के लिए, राजकीय दायित्वों के लिए किसी खास परिवार में जन्म लेना ही जरूरी नहीं होता।

Created On :   13 Oct 2020 10:02 AM GMT

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