नागपुर के मोमिनपुरा बस्ती में चरखा चलाकर महिलाएं चलाती है घर, दिन भर में मिलते हैं मात्र 50 रुपए

Women run a charkha in mominpura township of nagpur, they get only 50 rupees a day
नागपुर के मोमिनपुरा बस्ती में चरखा चलाकर महिलाएं चलाती है घर, दिन भर में मिलते हैं मात्र 50 रुपए
नागपुर के मोमिनपुरा बस्ती में चरखा चलाकर महिलाएं चलाती है घर, दिन भर में मिलते हैं मात्र 50 रुपए

डिजिटल डेस्क, नागपुर। गांधीजी ने चरखा चलाकर खादी बनाया और उससे स्वदेशी आंदोलन को गति दी थी। उस समय गांधी ने खुद चरखा चलाकर खादी बनाकर उसे बेचकर स्वदेशी आंदोलन में अपना योगदान देकर इसे अंग्रेजों के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन बनाया था। इस खादी उद्योग से कई लाेगों को रोजगार भी मिले। इसे कुटीर उद्योग के रूप में चलाया गया, लेकिन अब गांधी के इस चरखे को मोमिनपुरा बस्ती में रहने वाली महिलाएं इसे रोजी-रोटी के लिए चला रही हैं। लेकिन इससे उतनी आय नहीं होती जितने में परिवार का खर्चा उठाया जा सके। 

दिनभर चरखा चलाने पर 50-60 रुपए
मोमिनपुरा बस्ती में एक पूरा क्षेत्र केवल यही कार्य करता है। यहां पर महिलाएं और बुजुर्ग घर पर बैठ कर पूरे दिन चरखा चलाकर धागा बनाते हैं। एक बंडल धागे के 12 रुपए मिलते हैं, जिसे बनाने में लगभग 2 घंटे लगते हैं। पूरे दिन लगातार चरखा चलाने पर 4-5 धागे के बंडल बनते हैं जिससे 50-60 रुपए मिलते हैं। महिलाएं यह काम ठेकेदारी पर करती हैं। जिनके पास मशीनें हैं, वह महिलाओं को सामान दे देते हैं और महिलाएं सामान से धागा बना कर देती हैं। यहां हर एक परिवार में 4 से ज्यादा लाेग हैं। घर के पुरुष बाहर मजदूरी या फिर अन्य कार्य करते हैं, जिसमें उन्हें घर चलाने के लिए पर्याप्त धन नहीं मिलता। बच्चों को स्कूल पहुंचाने, घर चलाने और अन्य खर्च में महिलाओं को भी काम करना पड़ता है। 

पीढ़ियों से पारंपरिक तरीके से बना रहे साड़ियां 
मशीन चालक निशाद अहमद अंसारी ने बताया कि उनके पिताजी मोहम्मद बशीर मरहूम अंसारी यह कार्य करते थे और उनके बाद अब यह मशीन चलाकर यह साड़ियां बनाते हैं। इनके साथ ही इनका बेटा मुसैद अंसारी भी काम करता है। निशाद बचपन से ही अपने पिता के साथ काम करने लग गए थे। यह कार्य करते-करते अंसारी परिवार को 100 साल से भी ज्यादा हो गए हैं। अब यही इनका पुश्तैनी काम हो गया है। यहां पर 4 मशीनें हैं, जाे पुराने पारंपरिक तरीके से बनी हैं यहां पर नई आधुनिक मशीनें नहीं हैं। चार मशीनों पर डेढ़ किलो धागे से 4 साड़ियां तैयार होती हैं। दिन भर में 4-5 साड़ियां ही तैयार हो पाती हैं। इन साड़ियों की बिक्री अब कम होने लगी है केवल त्योहारी सीजन में और शादियों के सीजन में इनकी मांग होती है। इसमें भी इन मशीन चालकों की आय नहीं हो पाती है। बिजली बिल सामान और अन्य खर्च घटाकर महीने में 8 से 10 हजार की आय हाेती है।

पुरुष करते हैं मजदूरी 
चरखे से बनाए हुए धागे की गुणवत्ता अलग होती है और इसकी मांग भी होती है। इसलिए इसे चरखे पर ही बनाया जाता है। इसे बनाने के बाद इस धागे के साथ अन्य धागों को भी उपयोग कर साड़ियां बनाई जाती हैं। बस्ती में कई मशीनें हैं जहां पर ज्यादातर बस्ती के ही पुरुष काम करते हैं। यहां पर पीढ़ियों से लोग साड़ी बनाने का काम करते हैं। अभी भी यहां पर पूराने जमाने की ही मशीनें हैं। मशीन वाले सामान महिलाओं को देते हैं और वह धागा बनाती है, जिनकी केवल मजदूरी महिलाओं को मिलती है। चरखे से बने धागों को और अन्य धागों को मशीन में लगाया जाता है और डिजाइन के लिए इसे अलग-अलग तरीके से लगाना पड़ता है। 

कमाई नहीं है
हमारे घर में 4 से ज्यादा सदस्य हैं। बच्चों को स्कूल भेजना, घर चलाना और अन्य खर्च नहीं कर पाते, इसलिए मुझे काम करना पड़ता है। इसमें ज्यादा कमाई नहीं है फिर भी घर बैठकर ही काम करती हूं। इससे घर में आर्थिक मदद हो जाती है। - रजिया बी., रहवासी मोमिनपुरा

नहीं चलता घर
एक व्यक्ति के काम करने से घर नहीं चल पाता है, इसलिए हमें भी घर में सहयोग देने के लिए चरखा चलाना पड़ता है। इसके अलावा कोई और काम मिल जाए तो यह नहीं करेंगे। कुछ नहीं है इसलिए मजबूरी में यही कर रहे हैं। - रूमी हुसैन, रहवासी मोमिनपुरा
 

Created On :   2 Oct 2019 5:35 AM GMT

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