पुण्यतिथि विशेष : भारतीय सिनेमा का नगीना थे बलराज साहनी, ऐसा था फिल्मी सफर
डिजिटल डेस्क, मुंबई। हिंदी सिनेमा में जब भी दिग्गजों के बात की जाती है, तो एक नाम जरूर याद आता है, वो नाम है रावलपिण्डी में जन्में बलराज साहनी का, जिन्होंने धरती के लाल, दो बीघा जमीन, काबुलीवाला, हक़ीक़त, वक़्त और गरम हवा जैसी क्लासिक हिन्दी फिल्मों में यादगार भूमिकाएं कीं। आज हम बलराज साहनी को उनकी पुण्यतिथि पर याद कर रहे हैं। एक मई 1913 को रावलपिण्डी में जन्मे बलराज साहनी का निधन 13 नवंबर 1973 को बॉम्बे में हुआ था। उनका असली नाम युधिष्ठिर साहनी था।
हिन्दी शिक्षक के तौर पर भी किया काम
बलराज साहनी बॉलीवुड के ऐसे सितारों में गिने जाते हैं, जिन्होंने कम समय में ही अभिनय की ऐसी छाप छोड़ी जिसे मिटा पाना किसी कलाकार के बस की बात नहीं। जब बॉलीवुड में सिर्फ दिलीप-देव-राज की तिगड़ी ही दिग्गज कलाकारों में गिनी जाती थी, उस वक्त बलराज साहनी ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। बलराज साहनी ने अभिनय की शुरुआत रंगमंच से की थी। वो और उनकी पत्नी बनी दमयंती दोनों ही वामपंथी थिएटर ग्रुप इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े हुए थे। नाटक लिखने और उसमें अभिनय करने के अलावा बलराज साहनी ने गुरु रविंद्रनाथ टैगोर की छत्रछाया में शांति निकेतन में हिन्दी शिक्षक के तौर पर काम कर चुके थे। बलराज साहनी को साहित्य का अच्छा ज्ञान था, वह पंजाबी के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में भी कहानियां लिखते थे।
किरदार के लिए करते थे रियल मेहनत
कुछ साल बलराज साहनी ने बीबीसी हिन्दी में उद्घोषक की नौकरी भी की। बलराज साहनी ने अपने हर रोल के लिए वास्तविक अनुभव हासिल कर काम करने के लिए जाने जाते थे। फिल्म दो बीघा जमीन में हाथ-रिक्शा खींचने वाले मजदूर का रोल निभाने के लिए उन्होंने 15 दिनों तक कलकत्ता (अब कोलकाता) की सड़कों पर हाथ-रिक्शा खींचा था। इसी तरह काबुलीवाला फिल्म की तैयारी के लिए वो कई दिनों तक पठानों के साथ रहे। बहुत कम लोगों को ये बात मालूम होगी कि बलराज साहनी को शुरुआत में उपहास का पात्र भी बनना पड़ा था।
‘दो बीघा जमीन’ से बनवाया लोहा
‘दो बीघा जमीन’ फिल्म में ही बलराज साहनी के अभिनय कौशल का लोगों ने लोहा मान लिया। सत्यजीत रे ने एक बार कहा था कि ‘दो बीघा जमीन’ वह पहली भारतीय फिल्म है, जिसने सही अर्थ में सामाजिक यथार्थ को उद्घाटित किया था। इस फिल्म में बलराज साहनी ने एक भारतीय किसान और मजदूर (रिक्शा चालक) की भूमिकाएं निभाई थीं। बलराज साहनी के अभिनय की विशेषताओं को ध्यान में रखकर कहानियां लिखी जाती थीं. ‘गरम कोट’ और ‘औलाद’ उनकी ऐसी ही फिल्में थीं। बलराज साहनी ने पद्मिनी, नूतन, मीरा कुमारी, वैजंतीमाला, नर्गिस जैसी सभी टॉप एक्ट्रेस के साथ काम किया। 1960 में पाकिस्तान दौरे के बाद उन्होंने ‘मेरा पाकिस्तानी सफर’ नामक एक किताब की भी रचना की। उन्होंने कई देशों की यात्रायें की और उन पर किताबें भी लिखी। बलराज साहनी के छोटे भाई भीष्म साहनी भी हिंदी के एक जाने-माने लेखक रहे हैं।
जेल में कैदी भी थे और फिल्म में जेलर भी
ये उस वक्त का किस्सा है जब बलराज साहनी वामपंथी राजनीति में सक्रिय थे। उन्हीं दिनों मशहूर निर्माता-निर्देशक के आसिफ "हलचल" (1951) फिल्म बना रहे थे। जिस फिल्म का निर्देशन एसके ओझा कर रहे थे। फिल्म में दिलीप कुमार और नर्गिस मुख्य भूमिका में थे। बलराज साहनी का इस फिल्म में किरदार जेलर का था, वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पंजीकृत सदस्य भी थे। एक बार उन्हें किसी राजनीतिक रैली में शामिल होने की वजह से जेल जाना पड़ा। इसी दौरान बलराज साहनी को जेल से फिल्म की शूटिंग के लिए लाया जाता था।
बलराज जेल से आकर जेलर की भूमिका निभाकर लौट जाते थे। उस समय उनकी पत्नी दमयन्ती भी गर्भवती थीं। बलराज के जेल में होने से उनका परिवार आर्थिक संकटों से घिर गया था। उनके परिवार की मदद के लिए फिल्म निर्माता के आसिफ ने उनके बेटे परिक्षित को भी फिल्म में बाल कलाकार के तौर पर काम दे दिया था। इस तरह पिता-पुत्र दोनों ही कई बार सेट पर साथ ही मौजूद होते थे। तो कई बार केवल अजय साहनी अकेले शूटिंग कर रहे होते थे। बलराज के घर में उनके अलावा कोई कमाने वाला नहीं था।
हिंदी सिनेमा में खुद को किया साबित
बलराज जेल में रहने के कारण दिन पर दिन कमजोर होते जा रहे थे। शारीरिक दशा और जेल से आकर शूटिंग करने का बहुत से लोग उनका मजाक बनाते थे। परिक्षित साहनी के सामने ही कुछ लोग कहते थे कि बलराज साहनी फिल्मी दुनिया में सफल नहीं हो सकते। एक बार उन्होंने अपने बेटे से कहा कि "बेटा, मुझे पता है कि ये लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं, लेकिन तुम इससे परेशान मत होना। एक दिन मैं उन्हें दिखा दूंगा।" इसके बाद बलराज साहनी ने साबित किया कि वो क्या थे।
बलराज साहनी का 13 अप्रैल 1973 को मुंबई में 59 वर्ष की उम्र में हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया। मृत्यु से पहले मुंबई के लीलावती अस्पताल में बलराज साहनी ने डॉक्टर को काग़ज़ पर लिखकर दिया था- मुझे कोई पछतावा नहीं, मैंने अपनी जिन्दगी भरपूर जी है। उन्होंने अपने पुत्र से कहा था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी शय्या पर लाल पताका और लेनिन की पुस्तकें रख देना। उनकी यह अंतिम इच्छा पूरी भी की गई। पात्रों में पूरी तरह डूब जाना उनकी खूबी थी। वह उनकी किसी भी फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है।
Created On :   13 April 2018 1:16 PM IST