Lipstick Under My Burkha Review: खुल के जीने की लड़ाई
"लिपस्टिक अंडर माय बुर्का" Film Review
रेटिंग- 4/5
कास्ट- कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, अहाना कुमरा, प्लबिता बोरठाकुर
डायरेक्टर- अलंकृता श्रीवास्तव
समय- 1 घंटे 58 मिनट
जॉनर- कॉमेडी
लैंग्वेज- हिंदी
कहानी
यह कहानी भोपाल के एक ही मोहल्ले में रहने वाली चार महिलाओं ऊषा (रत्ना पाठक शाह), शिरीन (कोंकणा सेन), लीला (अहाना कुमरा) और रिहाना (प्लाबिता बोरठाकुर) की है, जो अलग-अलग तरह से अपनी जिंदगी "जी" नहीं बल्कि जिंदगी काट रही हैं। ऊषा को लोग बुआ जी के नाम से बुलाते हैं जिनका रुझान रोमांटिक उपन्यासों की तरफ ज्यादा है, वहीं शिरीन एक डोर टू डोर सेल्स वुमन का काम करती है लेकिन अपने पति (सुशांत सिंह) को नहीं बताती है, क्योंकि उसे डर है कि कहीं वो ये जानकार नाराज ना हो जाए, लीला को फोटोग्राफर अरशद (विक्रांत मास्सी) से प्रेम है लेकिन अरशद उसको कम भाव देता है साथ ही लीला की शादी किसी और के साथ फिक्स हो जाती है। रिहाना एक कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की है। घर में बंदिशों के चलते वो पिता के साथ सिलाई में हाथ बंटाती है लेकिन जब भी वह घर से बाहर जाती है तो अपनी ही धुन में वेस्टर्न स्टाइल में जीने की कोशिश करती है। ये चारो महिलाएं जो असल जिंदगी में करना चाहती हैं, वो खुल कर नहीं कर पाती हैं इसलिए झूठ बोलना, चोरी करना और छुपाना उनकी मजबूरी है।
समीक्षा
‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ के अंत में जैसे ही चारों लीड महिलाओं के विद्रोह का रिज्लट सामने आता है, तो बैकग्राउंड में हमें पटाखों की आवाज सुनाई देती है। डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने दीवाली का बैकड्रॉप चुना है। वह हमसे यही कहना चाहती हैं कि भले ही इन महिलाओं की जिंदगी में कितने भी परेशानी हो ,उन्हें कितना भी आग में जलाया जाए उनकी इच्छाओं को कितना भी घर की चार दिवारी में जकड़ कर रखा जाए पर एक दिन जब वो इच्छाएं खुले आसमान में सांस लेंगी उस दिन चारो तरफ दिवाली के पटाखों की तरह धमाके होंगे।
शिरीन और लैला की उलझी जिंदगी
शिरीन (कोंकणा) अपने पति से परेशान है। वह रात में किसी राक्षस की तरह बर्ताव करता है। ऐसे में शिरीन दिन को अपनी नौकरी में ही सुकून पाती है। लीला (अहाना) जिंदगी को लेकर अपनी फैंटेसीज पूरी करने के लिए सेक्स का इस्तेमाल करती है और मर्दों को बातों से रिझाना, उलझाना जानती है।
रिहाना और ऊषा की जिंदगी
रिहाना (प्लबिता) की जिंदगी बुर्के में कैद है, लेकिन वह कटे-फटे जींस के सपने देखती है। उसके लिए आजादी के मायने बैड बॉयज और माइली साइरस वाले ब्रांड से है। कहानी का चौथा पात्र है ऊषा (रत्ना) का। वह उम्र के उस पड़ाव पर है, जहां सेक्स की बात करना भी अनैतिक माना जाता है। लेकिन वह कामुक कहानियों वाली किताबों छिपाकर रखती है।
चार दिवारी के पीछे की कहानी
फिल्म में स्कैंडल जैसा कुछ नहीं है। लेकिन यही इसकी खूबसूरती है। बतौर डायरेक्टर अलंकृता हमारी मुलाकात चार औरतों से करवाती हैं और फिर हमें उनकी जिंदगी में ले जाती है। दरवाजे के इस पार भी और उस पार भी। अब बंद दरवाजे के पीछे एक मुस्लिम लड़की है, जो तेज संगीत पर नाचती है। एक दंपत्ति का बेडरूम है, जहां एक औरत रोज अपने हैवान पति का शिकार बनती है। एक लड़की है जो ब्यूटी सैलून चलाती है। और एक बूढ़ी महिला है, जो बाथरूम में नल इसलिए चला देती है कि कोई उसकी आहें सुन ना ले।
शानदार अभिनय
प्लबिता और अहाना ने मूवी को चमकाने का काम किया है। बतौर दर्शक आप उनसे कनेक्ट करते हैं। एक असहाय पत्नी के रोल में कोंकणा आपको सोचने पर मजबूर करती है कि कैसे एक महिला अपने ही घर में किसी दास की तरह रहती है। रत्ना पाठक को देखने के बाद बहुत संभव है कि आप अब बूढ़ी महिलाओं को नए अंदाज से देखने लगे।
सिनेमेटोग्राफर का कमाल
सिनेमेटोग्राफर अक्षय सिंह ने तंग जगहों पर भी क्लोज-अप का इस्तेमाल किया है। यह आपको क्लॉस्फोरोबोबिक बनाता है। यानी एक अनजाना डर। गजल धलीवाल की लिखी लाइनें खुशहाल महिलाओं से लेकर निराशावादी महिलओं के भाव को हम तक पहुंचाते हैं।
क्यों देखें
फिल्म के दौरान समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे रूढ़िवादी व्यवहार की तरफ एक बड़ा कटाक्ष किया गया है, जैसे कि महिलाएं काम ना करें, वो सिर्फ बच्चे ही पालें, पर्दे में रहें।
फिल्म को लिखने के अंदाज की तारीफ करना लाज्मी है। फिल्म के शानदार डायलॉग्स कहानी को ओर दिलचस्प बनाते हैं। जिंदगी के ऐसे छोटे-छोटे पलों को भी फिल्म में शामिल करने की कोशिश की गई है जो रोजमर्रा की जिंदगी में आप देख पाते हैं और यही कारण है कि फिल्म से आम आदमी कनेक्ट कर सकेगा।
कमजोर कड़ियां
यह फिल्म कोई मसाला फिल्म नहीं है, जिसमें आपको कॉमेडी, फूहड़ जोक्स या आइटम सॉन्ग देखने को मिलेंगे इसलिए सिनेप्रेमियों का शायद एक खास तरह का तपका इसे पसंद ना करे। साथ ही फिल्म को एडल्ट सर्टिफिकेट मिला है जिसकी वजह से सभी लोग इस फिल्म को नहीं देख पाएंगे। इक्का दुक्का कमियां हैं, जिसे नकारा जा सकता है।
फिल्म के गीत ‘ले ली जान’ में एक लाइन है- ’12 टके ब्याज पे, हंसी है उधार की’। ये पंक्तियां फिल्म को सही मायने में परिभाषित करते हैं। ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ भले ही महिलाओं की जिंदगी में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं ला सके, लेकिन हां कुछ दीवारों को तो तोड़ने में यह जरूर कामयाब रहेगी।
Created On :   19 July 2017 3:55 PM IST