दुआएं बांटने वाली ट्रांसजेंडर कम्युनिटी को अब 'कानूनी दवा' की जरूरत

डिजिटल डेस्क, कोच्चि। घर में बच्चे का जन्म हो या कोई और खुशी का माहौल, वे आते हैं नाच-गाकर बधाइयां देते हैं लेकिन न समाज ने और न ही कानूनी रूप से उन्हें तीसरे लिंग के रूप में बराबरी काा हकदार माना गया है। उनकी पहचान देश की द्विलैंगिक सामाजिक व्यवस्था से अलग ही मानी जाती रही है। इस साल मई में कोच्चि मेट्रो रेल लिमिटेड ने जब पहली बार 23 ट्रांसजेंडर्स को नौकरी पर रखा तो यह उम्मीदें बंधी कि शायद अब तीसरे लिंग की इस जमात को देशभर में वही सम्मान और गौरव मिलेगा, जिसके लिए इंसानियत उन्हें हकदार मानती है।
लेकिन हुआ उल्टा। 23 में से 8 ट्रांसजेंडर महिलाओं ने इसलिए नौकरी छोड़ दी, क्योंकि शहर में कोई उन्हें किराए पर घर देने को तैयार नहीं था। इनमें से कुछ महिलाएं सड़क पर भीख मांगती थी तो कुछ सेक्स वर्कर के रूप में गैरकानूनी काम करती थी। नौकरी छोड़ने वाली ट्रांसजेंडर महिलाओं ने फिर से पुराना पेशा अपना लिया है। ज्यादा नहीं तीन साल पहले ही भारत की न्यायिक व्यवस्था ने स्त्री और पुरुष के अलावा तीसरे लिंग को भी मान्यता दी थी। पिछले साल देश की संसद ने ट्रांसजेंडर के अधिकारों को तय करने के लिए एक बिल भी रखा, लेकिन यह कानून नहीं बन पाया।
हमारा समाज अपने नियम पर चलता है जिसमें कुछ खराबियां भी हैं और ये हमारी सोच में बहुत गहरे तक जमीं हुई हैं। ट्रांसजेंडर को अभी भी शादियों या जन्मोत्सव के समय बधाईयां और दुआएं देने वाले तबके के रूप में जाना जाता है। आज इसी तबके को अपने हक के लिए दुआओं की जरूरत है। निजी क्षेत्र ने ट्रांसजेंडर्स के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले हैं। इसके बावजूद इस समुदाय ने अपनी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति से नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है। यह अलग बात है कि इनमें से बहुतों को अपनी पहचान छुपानी पड़ती है ताकि कार्यस्थल पर उनके साथ भेदभाव ना हो।
BRAVOH नाम की एक संस्था जो ट्रांसजेंडर्स के हक के लिए काम करती है, उसके कार्यकर्ताओं का मानना है कि तीसरे लिंग के साथ घर में जितना भेदभाव नहीं किया जाता उससे कहीं ज्यादा कार्यस्थलों पर होता है, चाहे कॉलेज हो या ऑफिस, स्किल की जगह उनकी बनावट, रंगरूप और हाव भाव पर फब्तियां कसी जाती हैं। देश की पहली ट्रांसजेंडर प्रिंसिपल मानोबी बंदोपाध्याय के साथ इससे भी कहीं ज्यादा कुछ हुआ। अपनी किताब ' A Gift of Goddess Lakshmi' में वे लिखती हैं, 'मेरे माता-पिता मुझे बेटा मानते थे लेकिन स्कूल और कॉलेज से लेकर Ph.D की पढ़ाई तक दो दशकों में उन्हे घोर यातनाएं झेलनी पड़ीं। उन्हें भी किसी ने किराए पर एक छत नसीब नहीं होने दी।
लम्बी लड़ाई के बाद पिछले साल मानोबी ने नौकरी छोड़ दी। उनकी सारी शिक्षा, किताबें, लेख समाज की सोच नहीं बदल पाए। अब धीरे-धीरे ट्रांसजेंडर की नई पीढ़ी व्हाईट कॉलर तो नहीं लेकिन ब्लू कॉलर Jobs में आ रही है। चेन्नई, केरल और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में ऐसे कई संगठन हैं जो ट्रांसजेंडर को कार्पोरेट में जगह दिलाने में मदद कर रहे हैं। इसके बावजूद अभी बहुत कुछ होना बाकी है। जैसे-कार्यस्थलों पर उनके लिए समानतामुलक वातावरण कैसे बने, सहयोगियों को ट्रांसजेंडर के साथ सलीके से पेश आने की शिक्षा कौन दे और सबसे बड़ी बात 'अनुच्छेद 377' को लेकर नियोक्ताओं में जो डर है उसे कैसे कम किया जाए।
हाल में एक अध्ययन के मुताबिक, 85 प्रतिशत ट्रांसजेंडर्स ने कहा कि उन्हें तीसरे लिंग का होने के कारण सहकर्मी दुतकारते हैं जबकि 69 प्रतिशत को उनके परिवार वालो ने ही बाहर कर दिया है। बहरहाल अब संसद पर सबकुछ टिका हुआ है कि वह 1860 के उस कानून को 21वीं सदी में बदलने की पहल करती है जो इस तबके की प्रगति के लिए सबसे बड़ा रोड़ा है।
Created On :   24 July 2017 6:55 PM IST