हिंदी शोध की वैश्विक चेतना: रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में "विश्व रंग अंतरराष्ट्रीय हिंदी शोधार्थी सम्मेलन" का भव्य आयोजन

रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में विश्व रंग अंतरराष्ट्रीय हिंदी शोधार्थी सम्मेलन का भव्य आयोजन

भोपाल। रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, रायसेन द्वारा विश्व रंग फाउंडेशन के सहयोग से आयोजित "विश्व रंग अंतरराष्ट्रीय हिंदी शोधार्थी सम्मेलन" का आयोजन अत्यंत गरिमामय, वैचारिक और सांस्कृतिक माहौल में संपन्न हुआ। इस दो दिवसीय सम्मेलन में देश-विदेश के हिंदी प्रेमियों, शोधार्थियों, शिक्षकों, विद्वानों एवं सांस्कृतिक दूतों ने भाग लिया। आयोजन का मुख्य उद्देश्य हिंदी को वैश्विक शोध की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना और नई पीढ़ी को भारतीय भाषाओं, विशेषतः हिंदी में मौलिक शोध के लिए प्रेरित करना रहा।

उद्घाटन सत्र: विचारों, अनुभवों और संकल्पों का संगम

विश्वविद्यालय के शारदा सभागार में सम्मेलन का विधिवत शुभारंभ सरस्वती वंदना, दीप प्रज्वलन और शुभ-संकेतों के साथ हुआ।

इस अवसर पर कुलाधिपति संतोष चौबे, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. कुमुद शर्मा, दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्रा, दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विनोद तिवारी, चीन के कावंतोंग विश्वविद्यालय से पधारे डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी, कतर से आईं डॉ. शालिनी वर्मा, कुलपति प्रो. आर. पी. दुबे, संचालन कर रहीं डॉ. विशाखा राजुरकर तथा विषय प्रवर्तन कर रहे डॉ. अमिताभ सक्सेना जैसे प्रख्यात व्यक्तित्व उपस्थित रहे।

संतोष चौबे (कुलाधिपति, रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय): “हिंदी केवल भाषा नहीं, हमारी सांस्कृतिक चेतना है”

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कुलाधिपति संतोष चौबे ने कहा कि "हिंदी को लेकर हताश या निराश होने की आवश्यकता नहीं है। यह भाषा हमारी संस्कृति, परंपरा और एकता की संवाहक है। इसे हमें आत्मगौरव के साथ अपनाना है।"

उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय ने वनमाली सृजन पीठ जैसी पहल के माध्यम से 150 से अधिक केंद्रों पर हिंदी के रचनात्मक साहित्य और नवलेखन को प्रोत्साहित किया है। "हमने 'कंप्यूटर: एक परिचय' हिंदी में इसलिए लिखा ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में भी तकनीक पहुंचे।"

उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत में राजनीतिक कारणों से ही हिंदी का विरोध होता है, सामाजिक या सांस्कृतिक धरातल पर नहीं। "भाषाओं की एकता ही भारत की सांस्कृतिक एकता का मूल है। हमने 'इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिए' जैसी विज्ञान पत्रिका भी हिंदी में प्रकाशित की है।" उन्होंने 21 देशों के प्रवासी भारतीय लेखकों की रचनाओं के प्रकाशन का उल्लेख करते हुए कहा कि “विश्व रंग की परिकल्पना सांस्कृतिक एकता की ओर एक सशक्त कदम है।”

डॉ. कुमुद शर्मा (कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय): “शोध जीवन की एक रोमांचक यात्रा हो”

मुख्य अतिथि डॉ. कुमुद शर्मा ने अपने चिंतनशील और प्रभावशाली उद्बोधन में कहा कि "राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने उच्च शिक्षा में अनुसंधान को आधार बनाने पर जोर दिया है। स्नातक स्तर पर भी अब शोध-संभावनाएं खुल रही हैं। लेकिन हिंदी के शिक्षक और छात्र यह मानने लगे हैं कि जो ज्ञान आपको धन नहीं दिलाता, वह मूल्यहीन है।"

उन्होंने कहा कि शोधार्थी के लिए शोध एक ‘जागृति की यात्रा’ बननी चाहिए – जहाँ वह अपने भीतर और समाज दोनों में उतरता है। “हमें शोध को डिग्री तक सीमित न करके उसे समाज और राष्ट्र के निर्माण का साधन बनाना होगा।” उन्होंने युवाओं को आह्वान किया कि वे "सवाल पूछने की संस्कृति" विकसित करें – तभी शोध जीवंत और अर्थवान बन पाएगा।

प्रो. विनोद तिवारी (वरिष्ठ साहित्यकार, प्राध्यापक,दिल्ली विश्वविद्यालय): “हिंदी में तकनीकी शोध की सुदृढ़ नींव रखें”

विशिष्ट अतिथि प्रो. विनोद तिवारी ने बड़ी गहनता से हिंदी में हो रहे शोध की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा:"भारतेंदु हरिश्चंद्र की चिंता आज भी प्रासंगिक है — हिंदी अपनी चाल-ढ़ाल भूलती जा रही है। विज्ञान, गणित, इंजीनियरिंग, चिकित्सा जैसे विषयों में हिंदी में मौलिक शोध होने चाहिए, तभी भाषा को गरिमा प्राप्त होगी।"

उन्होंने शोध की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त की और कहा कि “आज हिंदी ‘विचार की भाषा’ नहीं, ‘जुगाड़ की भाषा’ बनती जा रही है, यह बेहद खतरनाक है।” उन्होंने यह भी कहा कि कुछ अध्यापक प्राचीन साहित्य की गलत व्याख्या कर विद्यार्थियों को भ्रमित कर रहे हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि शोध प्रस्ताव बनाने की विधियों पर कार्यशालाएं आयोजित होनी चाहिए।

डॉ. मुकेश मिश्रा (निदेशक, दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान): “हिंदी स्थापना का आंदोलन आज भी जीवित है”

मुख्य वक्ता डॉ. मुकेश मिश्रा ने कहा कि "हिंदी को लेकर हमारे अंदर जो आत्मबल है, वह किसी भी आंदोलन को सफल बना सकता है। हमने हिंदी को स्थापित करने के लिए आंदोलन किया है और आज भी वह संघर्ष जारी है।"

उन्होंने कहा कि देश में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए शोध को सामाजिक चेतना से जोड़ना आवश्यक है। "हिंदी का मार्ग कठिन हो सकता है, परंतु उसकी ऊर्जा असीमित है।"

डॉ. शालिनी वर्मा (कतर): “हिंदी प्रवासी भारतीयों को जोड़ने का जीवंत माध्यम है”

कतर से पधारी शिक्षाविद् डॉ. शालिनी वर्मा ने अपने अंतरराष्ट्रीय अनुभव साझा करते हुए कहा:"हिंदी ओलंपियाड जैसी अभिनव पहल रबींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय ने की, यह वैश्विक स्तर पर हिंदी की प्रतिष्ठा को प्रमाणित करता है।"

उन्होंने कहा कि “कतर में भारतीयों की जनसंख्या वहाँ के मूल निवासियों से अधिक है, और हिंदी ने इन भारतीयों को एकता के सूत्र में बांधा है।” उन्होंने कहा कि विश्वरंग के मॉरीशस सम्मेलन ने उन्हें पहली बार एहसास कराया कि दुनिया भर में हिंदी में कितना बड़ा काम हो रहा है।

डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी (चीन): “हिंदी भारतीय संस्कृति की वैश्विक प्रतिनिधि है”

चीन के कावंतोंग विश्वविद्यालय से आए डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी ने अपने उद्बोधन में कहा कि"संस्कृति किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है। भारत की आत्मा — भारतीय ज्ञान परंपरा — को हिंदी के माध्यम से दुनिया जान रही है।"

उन्होंने बताया कि चीन के 18 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है, और 100 से अधिक संस्थानों में बौद्ध अध्ययन केंद्र स्थापित हैं। "चीन में भारतीय स्थापत्य, चिकित्सा और दर्शन का गहरा प्रभाव है।" उन्होंने कहा कि हिंदी अब केवल अध्ययन की नहीं, रोजगार की भी भाषा बनती जा रही है।

डॉ. विशाखा राजुरकर ने संचालन में साहित्यिक गरिमा और भाव-बहुलता के साथ सभी वक्ताओं को संयोजित किया। विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. अमिताभ सक्सेना ने सम्मेलन की वैचारिक दिशा को स्पष्ट किया। कार्यक्रम के अंत में कुलसचिव डॉक संगीता जौहरी ने सभी का आभार व्यक्त किया।

कार्यक्रम की समन्वयक डॉ सावित्री सिंह परिहार ने सम्मेलन की रूपरेखा, उद्देश्य और आयोजन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए बताया कि "विश्व रंग अंतरराष्ट्रीय हिंदी शोधार्थी सम्मेलन का उद्देश्य न केवल हिंदी में शोध की गुणवत्ता को सुदृढ़ करना है, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर संवाद और सांस्कृतिक समरसता का माध्यम बनाना भी है। यह सम्मेलन उन शोधार्थियों, शिक्षकों और भाषा-संवेदनशील विचारकों का मंच है, जो हिंदी को केवल एक विषय नहीं बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक परंपरा के रूप में देखते हैं।" इस कार्यक्रम में ओमान, कतर, अर्मेनिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और अफगानिस्तान से आये शोधार्थियों ने हिस्सा लिया।

Created On :   18 July 2025 8:06 PM IST

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