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50 फीसदी क्षमता का भी नहीं हो रहा उपयोग, एसआईसीयू में भर्ती हर दूसरे मरीज की हो रही मौत

विजय ऋषि ,नागपुर । करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय एवं अस्पताल स्थित ट्रॉमा केयर सेंटर 50 फीसदी भी क्रियान्वित नहीं हो पाया है, जबकि इसे शुरू हुए 2 साल हो रहे हैं। इन पिछले दो सालों के चौंकाने वाले मामले सामने आए हैं। आंकड़ों से यह भयावह सच्चाई उजागर हुई है कि सर्जिकल इंटेन्सिव केयर यूनिट (एसआईसीयू) में भर्ती मरीजों में से हर दूसरे मरीज को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है।
जरूरी उपकरणों का अभाव
आईसीयू में वेंटिलेटर के अलावा अन्य कई स्टैंडर्ड गैजेट्स होते हैं, लेकिन ट्रॉमा के आईसीयू से वह गायब है, जो मरीजों की जान पर भारी पड़ रहा है। काफी दिनों से इन्हें लगाए जाने की मांग की जा रही है, लेकिन इस पर अब तक ध्यान नही दिया गया है।
ये भी है कारण
एसआईसीयू में भर्ती मरीजों का डेथ पर्सेंट 5 से 15 फीसदी तक ही सामान्य माना जाता है। लेकिन यहां ट्रॉमा के एसआईसीयू में मरीजों की मौत का परसेंटेज 50 फीसदी से अधिक है, जो चिंताजनक है।
स्टाफ रूम भी नहीं
एसआईसीयू में मरीजों की 24 घंटे देखभाल के लिए वहां डॉक्टरों का लगतार रहना जरूरी है। लेकिन एसआईसीयू में उनके रुकने की यहां कोई व्यवस्था नहीं है। जिसकी वजह से डॉक्टर वहां लगातार नहीं रुकते। एसआईसीयू में स्टॉफ रूम की सुविधा भी नहीं है।
ये हैं मौत के भयावह आंकड़े
कालावधि भर्ती मरीज मृत्यु
मई 2016 से दिसंबर 2016 323 143
जनवरी 2017 से दिसंबर 2017 588 279
जनवरी 2018 से मार्च 2018 102 53
ट्रॉमा केयर सेंटर का उद्घाटन मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस व केन्द्रीय मंत्री नितीन गडकरी ने किया गया था। उम्मीद जताई गई थी कि इस ट्रामा सेंटर से दुर्घटनाग्रस्त मरीजों की जान बचाई जा सकेगी लेकिन यह केंद्र शुरू से ही विवादों का केंद्र बना हुआ है। पिछले दिनों लोकलेखा समिति के दौरे में भी कई सारी खामियां सामने आईं थीं।
शुरुआत से ही विवाद
ट्रॉमा में कैजुअल्टी न होने पर समिति ने खुद कहा था कि अभी तो ट्रॉमा आधा भी चालू नहीं हुआ। न तो ओपीडी की व्यवस्था दिखी और न ही परिजनों के लिए प्रतीक्षालय। ऑपरेशन की संख्या भी कम मिली।
सीधे भर्ती नहीं होते मरीज
ट्रॉमा केयर सेंटर का मतलब ही है कि अस्पताल में जाने पर दुर्घटनाग्रस्त मरीज की जांच, भर्ती करने की प्रक्रिया और ऑपरेशन एक छत के नीचे किया जाए। दुर्घटना के बाद के पहले घंटे को गोल्डन ऑवर कहा जाता है, क्योंकि इस दौरान उपचार मिलने पर मरीज के बचने की संभावना 50 फीसदी से अधिक रहती है। ट्रॉमा केयर सेंटर में पहुंचने पर पहले मरीज को कैजुअल्टी में भेजा जाता है। जांच के बाद यदि उसको ऑपरेशन की जरूरत होती है तो उसका ऑपरेशन किया जाता है, जबकि मेडिकल के ट्रॉमा में मरीज को सीधे भर्ती ही नहीं किया जाता है।

Created On :   25 May 2018 11:27 AM IST