‘परसाई के व्यंग्यों में व्यवस्था परिवर्तन पर जोर’, व्यंग्य पाठ से कटाक्ष

Changes in the system in Harishankar Parsai vyang was organized
‘परसाई के व्यंग्यों में व्यवस्था परिवर्तन पर जोर’, व्यंग्य पाठ से कटाक्ष
‘परसाई के व्यंग्यों में व्यवस्था परिवर्तन पर जोर’, व्यंग्य पाठ से कटाक्ष

डिजिटल डेस्क, नागपुर। हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य को हिंदी साहित्य में विधा के रूप में स्थापित किया। व्यंग्य को हास्यबोध से निकालकर सशक्त व्यंग्य का सृजन किया। व्यंग्य को एक नई धार दी। विसंगतियों पर प्रहार के साथ व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया पर भी जोर दिया। यह बात डॉ. ओमप्रकाश मिश्रा ने कही। 

लोहिया अध्ययन केन्द्र का उपक्रम
लोहिया अध्ययन केंद्र की ओर से ‘हरिशंकर परसाई के व्यंग्यों में व्यवस्था परिवर्तन’ विषय पर व्याख्यान व उनके व्यंग्यों के पाठ का आयोजन केंद्र के मधु लिमये स्मृति सभागृह में किया गया। इस अवसर पर बतौर अध्यक्ष डॉ. मिश्रा बोल रहे थे। युवा व्यंग्यकार टीकाराम साहू ‘आजाद’, साहित्यकार डॉ. बालकृष्ण महाजन तथा हिंदी अधिकारी डॉ. जय प्रकाश ने परसाई के व्यंग्यों का पाठ किया। डॉ. मिश्रा ने कहा कि परसाई के व्यंग्य ‘भोलाराम का जीव’ में जहां प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है वहीं ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ व्यंग्य में भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था का चित्रण है। आजाद ने परसाई के व्यंग्य ‘सदाचार का ताबीज’ का पाठ किया जिसमें राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रहार किया गया है।

‘सदाचार का ताबीज’ की पंक्तियों ने गुदगुदाया
राजा ने वेश बदलकर अपने कर्मचारियों को घूस देने की कोशिश की। पहली बार वह घूस देने में असफल रहा, क्योंकि कर्मचारी ने घूस स्वीकार नहीं की। इससे राजा खुश हुआ। मगर दूसरी बार वही कर्मचारी घूस को राजी हो गया, क्योंकि वह महीने का आखिरी दिन था। कर्मचारी के भ्रष्टाचारी आचरण से हैरान राजा ने जब उसकी बाजू पर बंधे तावीज के साथ कान लगाकर सुना, तो उसमें से आवाज आ रही थी, ‘ले - ले, ले - ले, आज तो इकतीस तारीख है’।

डॉ. बालकृष्ण महाजन ने परसाई के व्यंग्य ‘कहावतों का चक्कर’ का पाठ किया जिसमें बताया गया है कि कहावतों के कारण कभी-कभी कैसी अजीब स्थित पैदा हो जाती है कि मजाक का पात्र बन जाते हैं। लेखक कहते हैं-‘अखबार मांग लेना और उसे रखे रहना कोई अनैतिक काम नहीं है। असल में इन चीजों की नैतिकता दूसरे किस्म की होती है जिसे ए.जी. गार्जनर ने ‘अम्ब्रेला मारल्स’ कहा है। छाते की नैतिकता यह है कि पानी गिरते में आप दोस्त का छाता ले गए और फिर लौटाया नहीं तो यह हड़पना नहीं हुआ। आप लौटाना भूल गए बस।’

डॉ. जयप्रकाश ने ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ व्यंग्य का पाठ किया जिसकी पंक्तियां थीं- ‘अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हां, एक बार हुआ था, पर वह मामला रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा-तिलचट्‌टों, देखो में श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम। पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया। उसने कहा, अपना तो नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं। यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था।’  

कार्यक्रम का संचालन टीकाराम साहू ‘आजाद’ ने किया। आभार संजय सहस्रबुद्ध ने माना। कार्यक्रम में केंद्र के महासचिव हरीश अड्यालकर, कोषाध्यक्ष संजय बुरडकर, सारण के हरिशंकर वैद्य, संजयकुमार देव, रामआशीष यादव, श्यामसुंदर बुटोलिया, डॉ. सुरेश खलाले, एच.बी. यादव, एम.जी. रायकवार, वासु गुरनानी सहित बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे। 

Created On :   30 Aug 2018 12:53 PM IST

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