विलुप्त हो रहे गिद्धों के संरक्षण के लिए महाराष्ट्र में सुरक्षित गिद्ध क्षेत्र बनाने की मांग 

Demand to create a safe vulture area in Maharashtra for conservation of extinct vultures
विलुप्त हो रहे गिद्धों के संरक्षण के लिए महाराष्ट्र में सुरक्षित गिद्ध क्षेत्र बनाने की मांग 
मुनगंटीवार को लिखा पत्र  विलुप्त हो रहे गिद्धों के संरक्षण के लिए महाराष्ट्र में सुरक्षित गिद्ध क्षेत्र बनाने की मांग 

डिजिटल डेस्क, मुंबई। बांबे नेचरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) ने गिद्धों के संरक्षण और संवर्धन के लिए महाराष्ट्र को सुरक्षित गिद्ध क्षेत्र बनाने की मांग की है। बीएनएचएस के मानद सचिव किशोर रिठे ने कहा कि कभी राज्य के ग्रामीण इलाकों और वन क्षेत्रों में गिद्ध दिखना सामान्य बात थी लेकिन अब मेलघाट, पेंच और गढचिरोली के कुछ हिस्सों को छोड़कर वे कहीं नजर नहीं आते। इसलिए महाराष्ट्र को सुरक्षित गिद्ध क्षेत्र बनाने की जरूरत है। रिठे ने इस मांग को लेकर वनमंत्री सुधीर मुनगंटीवार, प्रधान मुख्य वनसंरक्षक (वन्यजीव) सुनील लिमये और वनविभाग के प्रमुख सचिव को पत्र लिखा है। 

सुरक्षित क्षेत्र बनाने के लिए जानवरों के इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली कुछ दवाओं पर पाबंदी की जरूरत है। गिद्ध मरे हुए प्राणियों को खाकर जीते हैं और वे स्वच्छता दूत के तौर पर काम करते हैं इसीलिए पर्यावरण के लिए उनका संवर्धन बेहद जरूरी है। बता दें कि सितंबर महीने के पहले शनिवार को विश्व गिद्ध संवर्धन और जनजागृति दिन के रूप में मनाया जाता है।  

दवा बन गई मर्ज

बीएनएचएस के संचालक डॉ बिवाश पांडव के मुताबिक गिद्धों की तेजी से गिरती आबादी को लेकर किए गए शोध में खुलासा हुआ कि जानवरों को दी जा रही ‘डायक्लोफेनाक’ नाम की दवा गिद्धों की आबादी खत्म होने की मुख्य वजह है। गिद्धों के शरीर पर इस दवा का असर बेहद घातक होता है। मरे जानवरों के शरीर से यह दवा उन्हें खाने वाले गिद्धों में पहुंच जाती है। दवा का गिद्धों की प्रजनन क्षमता पर भी विपरीत असर पड़ता है। साल 2006 में भारत सरकार ने जानवरों के लिए डायक्लोफेनाक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन अब खुलासा हुआ है कि यह इकलौती दवा नहीं है। जानवरों को दी जाने वाली एसेक्लोफेनाक, केटोप्रोफेन, निमसुलाइड नाम की दवाओं का भी गिद्धों पर बुरा असर पड़ रहा है। रिठे ने कहा कि गिद्धों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाने के लिए इन दवाओं के इस्तेमाल पर भी पाबंदी या इनका कम से कम इस्तेमाल करने का रास्ता खोजना होगा। छानबीन में यह भी खुलासा हुआ है कि मेलोक्सिकम, टोल्फेनामिक एसिड नाम की दवाओं का गिद्धों पर कोई बुरा असर नहीं होता इसलिए इनका इस्तेमाल बढ़ाया जा सकता है।  

99.9 फीसदी खत्म हो चुके हैं गिद्ध

रिठे ने बताया कि गिद्धों की आबादी 99.9 फीसदी खत्म हो गई है। इसीलिए बीएनएचएस केंद्र सरकार के वन पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के साथ हरियाणा, मध्यप्रदेश, असम सरकारों के साथ मिलकर गिद्धों का कृत्रिम प्रजनन के कार्यक्रम चला रही है। कृत्रिम तरीके से 500 गिद्धों का प्रजनन व संरक्षण किया गया है लेकिन हमारे सामने समस्या यह है कि इन गिद्धों को प्राकृतिक वातावरण में कैसे छोड़ा जाए क्योंकि जिन जानवरों के शरीर में हानिकारक दवाएं हैं उन्हें खाने के बाद गिद्धों की भी मौत हो जाती है। इसलिए सुरक्षित क्षेत्र बनाना बेहद जरूरी है जिससे गिद्धों को खत्म होने से बचाया जा सके।    

गिद्धों का है धार्मिक महत्व

रिठे ने कहा कि गिद्धों का धार्मिक महत्व भी है। धार्मिक ग्रंथों में संपाती और जटायु नाम के दो गिद्धों का जिक्र है। ‘रामायण’ में इस बात का जिक्र है कि किस तरह सीतामाता को लंकापति रावण से बचाने की कोशिश में अपनी जान गंवा दी थी। हिंदू धर्म के साथ दूसरे कई धर्मों में भी गिद्धों का विशेष स्थान है। पारसी समाज मानता है कि पार्थिव शरीर दफन करने या जलाने से प्रदूषण फैलता है। इसलिए वे पार्थिव शरीर गिद्धों के खाने के लिए छोड़ देते हैं। लेकिन खत्म होते गिद्धों के चलते पारसी समाज भी परेशान है।   

 

Created On :   2 Sept 2022 7:19 PM IST

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