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उमेश बाबू चौबे कहते थे- ‘आम’ हूं, इसलिए आवाम के साथ हूं, शहर के लिए कुंजी थे

डिजिटल डेस्क, नागपुर। बड़े नेता, अधिकारी से लेकर आम जनता, मजदूर वर्ग हर कोई उनसे मिलता था। शोषित पीड़ित उनसे अपनी व्यथा खुलकर बताते। हर किसी से उनकी अात्मीयता रही। उमेश बाबू चौबे, एक ऐसा नाम जिसे पूरा शहर आदर की दृष्टि से देखता था। सर्वधर्म समभाव का जीता-जागता उदाहरण। जाति, धर्म और भी तमाम तरह की सीमाओं के पार खड़ा चेहरा, जो हमेशा ही खिलखिलाता दिखाई पड़ता था। चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आई। हां, त्यौरियां जरूर चढ़ीं, चेहरा भी तमतमाया पर न्याय के लिए। विषय चाहे जो भी हो, शरणागत के साथ वे हो ही जाते थे। कहते थे उमेश बाबू के चौखट पर दस्तक देने की हिम्मत कोई अत्याचारी, पाखंडी उठा ही नहीं सकता। नजर मिलाने की बात तो बहुत दूर है।
जीवन का अंतिम दिन कब आया, न उन्हें पता चला और न ही शहरवासियों को, इसलिए संजीदगी के साथ बिना किसी का हाथ थामे अपने पैरों पर हमेशा खड़े रहे। किसी को पैरों तक पहुंचने के पहले ही थाम लेते थे, कहते थे उतना महान नहीं मैं और बनाओ भी मत। मैं ‘आम’ हूं, इसलिए आवाम के साथ हूं। न जाने कितने संगठनों से जुड़े रहे। इसलिए नहीं कि कद बढ़ जाए, बल्कि लोग अपने संगठन का वजन बढ़ाने के लिए उन्हें साथ जोड़ लेते थे।
गोंडराजा को पहचान दिलाने की जिद
उमेश बाबू की शख्सियत के अनेक पहलू हैं। हर छवि में वे फिट बैठे। फिर बात गरीबों को न्याय दिलाने की हो या फिर इतिहास को सच साबित करने की। नागपुर को 300 साल पूरे होने पर त्रिशताब्दी महोत्सव मनाने की संकल्पना भी उनकी थी। इस संकल्पना के पीछे जिद्द थी तो सिर्फ गोंडराजा के अस्तित्व को साबित करने की। वे अनेक बार बातचीत में बताते रहे कि नागपुर के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की गई।
उनका दावा था कि जो नागपुर के निर्माता रहे, उन्हें दरकिनार किया गया। गोंडराजा के बिना नागपुर का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। इसे लेकर उन्होंने एक किताब भी लिखी। जिसमें 300 साल का जिक्र किया। गोंडराजा के वंशज राजे वीरेंद्र शाह को साथ लेकर उन्हें भी पहचान दिलाई। त्रिशताब्दी महोत्सव के बहाने उन्होंने गोंडराजा को नागपुर शहर की जनता के सामने लाया। उनके सफल प्रयासों के कारण विधानभवन चौक पर गोंडराजा बख्त बुलंद शाह की शहर में पहली प्रतिमा स्थापित हो पाई। इस महोत्सव के जरिए उन्होंने शहर के लिए अनेक योजनाएं मंजूर करवा ली। इसमें शहर प्रवेश के समय वर्धा रोड पर भव्य प्रवेश द्वार था तो जीरो मॉइल पर शहीदों का स्मारक। शहीदों का स्मारक तो बन गया, लेकिन प्रवेश द्वार अभी भी अधूरा है।
गरीबों के लिए मसीहा से कम नहीं थे
उमेश बाबू की छवि शोषित-पीड़ितों में किसी मसीहा से कम नहीं थी। उन तक पहुंचने वाले हर शख्स को बाबू ने अपनाया और उसके दु:ख, दर्द को सहा। संबंधित गलत होने पर उसे फटकारते भी थे। सही होने पर उसे न्याय दिलाने के लिए अंत तक लड़ते थे। फिर उसके लिए किसी बड़े नेता या अधिकारी से ही पंगा क्यों न लेना पड़े।
एक किस्सा है। काटोल-नरखेड़ क्षेत्र से महिला गोद में छोटा बच्चा लेकर पहुंची। काफी देर तक उनके कॉटन मार्केट स्थित उनके साप्ताहिक ‘नया खून’ कार्यालय के सामने अकेले बैठी रही। पहले तो समझा ऐसी कोई महिला आकर बैठी है, लेकिन काफी देर तक बैठे रहने पर उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने महीला को अंदर बुलाया, लेकिन महिला कुछ बोलने का नाम नहीं ले रही थी। उसे पानी और चाय पिलाने के बाद किसी तरह हिम्मत बंधाई। डरी-सहमी इस महिला ने जब बोलना शुरू किया तो बाबूजी के साथ वहां बैठे लोगों के रोंगटे खड़े हो गए।
पता चला कि गांव के कुछ लोगों ने उसे जबरन उसे हवस का शिकार बनाया, जिसका पाप वह लेकर घूम रही है। बाबूजी इसे लेकर महिला पर नाराज भी हुए, लेकिन महिला की स्थिति को देख उनसे रहा नहीं गया। तुरंत शाम को प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर उसकी आप बीती सामने लाई और पुलिस पर दबाव बनाकर एक अजनबी महिला के लिए संघर्ष शुरू कर दिया।
"मेरा जीवन एक खुली किताब"
पिछले साल उमेश बाबू ने अपने उम्र के 85 साल पूरे किए थे। इस अवसर पर राजे बख्त बुलंद शाह स्मारक समिति और विविध संगठनों ने उनका नागपुरवासियों की ओर से भव्य सत्कार किया था। बाबूजी इस बार थोड़े भावुक दिखे। लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि मोह, माया, प्रेम छोड़कर नागपुर से स्नेह लगाया। देशभर में नागपुर का गौरव बढ़े, यही इच्छा थी। अन्य जगह सरकारी नौकरी मिल रही थी, लेकिन उसे ठुकरा दिया। जिंदगी भर सामान्यों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष किया। विकट परिस्थितियों में संघर्ष का साथ नहीं छोड़ा। मेरे जीवन में सीक्रेट कुछ नहीं है। यह खुली किताब है। हर किसी के विश्वास को मैंने जीवन भर कायम रखा।
पद्मश्री से रहे वंचित
इसी कार्यक्रम में लोगों ने सरकार को उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की मांग की थी। उपस्थितों का मत था कि उनके संघर्षों के कारण आज तक अनेकों को न्याय मिला है, लेकिन सरकारी स्तर पर वे नजरअंदाज ही रहे। उनके कार्यों की दखल नहीं ली गई। बाबूजी को पद्मश्री मिले, ऐसी इच्छा सभी वक्ताओं ने जताई। उपस्थितों ने हाथ ऊंचा उठाकर अपनी सहमति भी जताई थी।
अजीब संयोग
उमेश चौबे स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास के अच्छे जानकार थे। स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े किस्से अक्सर सुनाते रहते थे। काॅटन मार्केट चौक स्थित शहीद स्मारक की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। संयोग की बात यह है कि स्वाधीनता आंदोलन की ऐतिहासिक तिथि ‘अगस्त क्रांति दिवस’ की पूर्व रात को उन्होंने अंतिम सांस ली।
‘बाबूजी एक अथांग सागर’ फिल्म का निर्माण
आम आदमी को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले जुझारू पत्रकार व वरिष्ठ समाजसेवी उमेश चौबे के जीवन पर आधारित ‘बाबूजी एक अथांग सागर’ का फिल्म का निर्माण किया गया है। यशवंत फिल्म प्रोडक्शन के बैनर तले बनी फिल्म के निर्देशक पुणे के संजय गायकवाड़ सहनिर्देशक प्रशांत सुर्वे, और मीनाक्षी पंडित हैं। फिल्म में चौबे की पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा तक के कार्यों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी से लेकर महापौर नंदा जिचकार तक ने चौबेजी के जीवन के विविध पहलुओं को रेखांकित किया है। पिछले दिनों मेडिकल अस्पताल में बिस्तर पर पड़े चौबेजी ने फिल्म के प्रोमो का विमोचन किया था। इससे उनके चेहरे पर खुशी की झलक दिखाई दी थी।

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Created On :   9 Aug 2018 10:47 AM IST