नागपुर ऐसा शहर, जहां हिंदी और मराठी भाषा की चलती है

Nagpur is a city where Hindi and Marathi languages run
नागपुर ऐसा शहर, जहां हिंदी और मराठी भाषा की चलती है
उपराजधानी नागपुर ऐसा शहर, जहां हिंदी और मराठी भाषा की चलती है

देश के प्रख्यात हिंदी के कवि अशोक वाजपेयी ने कहा

विदर्भ साहित्य संघ के शताब्दी वर्ष पर विविध आयोजन

डिजिटल डेस्क, नागपुर। मेरी नजर में कुछ बातें नागपुर काे विशेष दर्जा देती हैं। यह एकमात्र ऐसा शहर है, जहां हिंदी और मराठी भाषा की आवाजाही है। दूसरा यह गजानन माधव मुक्तिबोध व मेरे मित्र महेश एलकुंचवार का शहर है। तीसरी खास बात है कि यहां खादी और खाकी में महाकाव्यात्मक संघर्ष चलते रहता है। मैंने यहां हिंदी साहित्य संघ की बड़ी इमारत देखी है। इसलिए नागपुर मेरी नजर में खास है। ऐसा हिंदी के प्रख्यात कवि अशोक वाजपेयी ने कहा। विदर्भ साहित्य संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर आयोजित साक्षात्कार कार्यक्रम में उन्होंने एक सवाल का जवाब दिया। दैनिक भास्कर के समूह संपादक प्रकाश दुबे ने उनका साक्षात्कार लिया।

नागपुर में पहला पुरस्कार मिला : कवि वाजपेयी ने विविध सवालों के जवाब के साथ ही साहित्य से जुड़े नए-पुराने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि जब वे 12 साल के थे, तो संयुक्त राष्ट्रसंघ पर आधारित निबंध स्पर्धा का पहला पुरस्कार ‘पेन’ उन्हें नागपुर ने दिया था। किशोरावस्था में कविता का चस्का कैसे लगा, इस पर उन्होंने बताया कि उन्होंने छठवीं कक्षा में होते हुए गणतंत्र दिवस पर कुछ पंक्तियां लिखी थी। इसके बाद 9वीं कक्षा में कविता लिखकर पत्रिकाओं में भेजता था। उन दिनों भारती नामक पत्रिका में ऊपर कवि दिनकर जी का गीत और नीचे उनका गद्य, गीत प्रकाशित हुआ था। तब मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। वहीं से शुरुआत हुई थी।

मुक्तिबोध मार्क्सवादी नहीं थे : मुक्तिबोध जब बीमार हुए, तो वे राजनांदगांव से भोपाल लाए गए। जब दिल्ली में हमें पता चला, तो लेखकों की एक सभा हुई। निर्णय हुआ कि उनके बेहतर उपचार के लिए प्रयास किया जाए। भोपाल के हमीदिया अस्पताल में देखा कि वे काफी कमजोर हो चुके हैं। उनकी हालत इतनी खराब थी कि उन्हें दिल्ली एम्स में उपचार सुविधाएं दिलाने के लिए लेखकों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री से बात की थी। उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी। मुक्तिबोध मार्क्सवादी नहीं थे। किसी भी लेखक को वादी कहना उचित नहीं है। उनकी मार्क्सवाद में आस्था थी। 1964 में प्रकाशित अंधेरे में कविता संग्रह वर्तमान सामाजिक विषमता को दर्शाता है।

ठप्पा लगा दिया : कवि वाजपेयी को भी कम्युनिस्ट का ठप्पा लगा दिया गया था। इस पर उन्होंने कहा कि हरिशंकर परसाई को जबलपुर विश्वविद्यालय ने डी. लिट की मानद उपाधि दी। उस समय मैं कृषि व सहकारिता विभाग में सेवारत था। उस समय के राज्यपाल ने एक प्रस्ताव के लिए बुलाया, जिस पर चर्चा हुई। पं. द्वारका प्रसाद मिश्र ने अर्जुन सिंह को चिट्‌ठी लिखी कि आपके संस्कृति विभाग में एक कम्युनिस्ट ने दूसरे कम्युनिस्ट को डी. लिट की उपाधि दिलाई है।

सांस्कृतिक कार्यों की शुरुआत की  जब कोई सरकारी सेवा में आता है, तो बड़े विभागों की चाह होती है। आपने संस्कृति विभाग को ही क्यों चुना, इसके जवाब में उन्होंने बताया कि महासमुंद से सांस्कृतिक कार्यों की शुरुआत की। 10 अगस्त 1972 को भोपाल पहुंचा। उस समय अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री थे। भोपाल मंे अर्जुन सिंह से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि संस्कृति में क्या करना चाहिए और वह आप की कल्पना से कीजिए। संस्कृति विभाग में मैं सचिव बन गया। इस तरह साहित्य व संस्कृति चल पड़ी।

पुरानी यादों को ताजा किया : कवि वाजपेयी ने साहित्य व संस्कृति से संबंधित अनेक प्रश्नों के उत्तर देकर उपस्थितों का समाधान किया। विदर्भ साहित्य संघ द्वार शताब्दी अवसर पर निरंतर साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। इसी श्रृंखला की कड़ी में कवि अशोक वाजपेयी को आमंत्रित किया गया था। इस दौरान नई-पुरानी यादों को उजाला मिला। उपस्थित श्रोताओं ने भी कुछ सवाल के जवाब पाकर अपनी जिज्ञासा पूरी की। प्रारंभ में मां सरस्वती की प्रतिमा को माल्यार्पण किया गया। विदर्भ साहित्य संघ के अध्यक्ष मनोहर म्हैसालकर ने अशोक वाजपेयी व प्रकाश दुबे का स्वागत किया। विसासं के प्रफुल शिलेदार ने अतिथि परिचय करवाया। संचालन श्वेता शेलगांवकर ने किया। इस अवसर पर बड़ी संख्या मंें साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।

‘अंधेरे’ का पाठन किया : कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के संपर्क में आने की घटना बताते हुए उन्होंने कहा कि उनकी कविताएं पत्रिकाओं में पढ़ता था। 1958 में मेरा उनसे साक्षात परिचय हुआ। हमने एक संस्था बनाई थी। एक बार उनका व्याख्यान रखा था। उस समय मुक्तिबोध समेत अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, रविशंकर और मकबूल फिदा हुसैन का भी व्याख्यान हुआ था। उस समय मुक्तिबोध ने हम चार-पांच मित्रों के सामने अपनी कविता ‘अंधेरे’ का पठन किया था। जब यह कविता सुनी, तो नागपुर की कई कहानियां उस कविता में थीं। मैं 19 साल का होते-होते मुक्तिबोध को समझने वाला पहला व्यक्ति हूं।
 

Created On :   14 Aug 2022 7:29 PM IST

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