वक्त के साथ बदलते मीडिया से साक्षात्कार - डॉ. विनीत उत्पल

Interview with the changing media with the times - Dr. Vineet Utpal
वक्त के साथ बदलते मीडिया से साक्षात्कार - डॉ. विनीत उत्पल
जो कहूंगा सच कहूंगा - प्रो. संजय द्विवेदी से संवाद वक्त के साथ बदलते मीडिया से साक्षात्कार - डॉ. विनीत उत्पल
हाईलाइट
  • प्रथमतः और अंततः जनता के दुख-दर्द के साथ मीडिया को होना होगा

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। वक्त बदल रहा है, मीडिया बदल रहा है, मीडिया तकनीक बदल रही है, मीडिया के पाठक और दर्शक की रुचि, स्थिति और परिस्थिति भी बदल रही है। ऐसे में मीडिया अध्ययन, अध्यापन और कार्य करने वालों को खुद में बदलाव लाना आवश्यक है। इसके लिए मीडिया के मिजाज को समझना और समझाना आवश्यक है। “जो कहूंगा, सच कहूंगा” नामक पुस्तक इस दिशा में कार्य करने में सक्षम है।
 
भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी की बातचीत मीडिया विद्यार्थियों को एक नव दिशा देने का कार्य करती है। मीडिया में आने वाले विद्यार्थी पत्रकार तो बन जाते हैं, लेकिन मीडिया की बारीकियों को समझने में उन्हें समय लगता है, क्योंकि मीडिया वक्त के साथ परिवर्तनकारी होता है। यही कारण है कि डॉ. ऋतेश चौधरी के साथ साक्षात्कार में संजय द्विवेदी कहते हैं, “वक्त का काम है बदलना, वह बदलेगा। समय आगे ही जायेगा, यही उसकी नैसर्गिक वृत्ति है।” लेकिन मीडिया की दशा और दिशा को देखकर वे कहते हैं, “मीडिया की मजबूरी है कि वह समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे प्रथमतः और अंततः जनता के दुख-दर्द के साथ होना होगा।”

संजय द्विवेदी पत्रकारों को सामान्य व्यक्ति नहीं मानते। एसडी वीरेंद्र से बातचीत में वे कहते हैं, “सामान्य व्यक्ति पत्रकारिता नहीं कर सकता। जब तक समाज के प्रति संवेदन नहीं होगी, अपने समाज के प्रति प्रेम नहीं होगा, कुछ देने की ललक नहीं होगी, तो मीडिया में आकर आप क्या करेंगे? मीडिया में आते ही ऐसे लोग हैं, जो उत्साही होते हैं, समाज के प्रति संवेदना से भरे होते हैं और बदलाव की जिसके अंदर इच्छा होती है।” समाज में पत्रकार की भूमिका को लेकर जो आमतौर पर चिंता जताई जाती है, या फिर मीडिया की परिधि में समाचार, विचार और मनोरंजन के आ जाने से आलोचना की जाती है, उसे लेकर उनका मंतव्य स्पष्ट है कि “सामाजिक सरोकार छोड़कर कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती। न्यूज़ मीडिया अलग है और मनोरंजन का मीडिया अलग है। दोनों को मिलाइये मत। दोनों चलेंगे। एक आपको आनंद देता है, दूसरा खबरें और विचार देता है। दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं।”

संजय द्विवेदी मानते हैं कि मीडिया का काम जिमेदारी भरा है। लोगों की आकांक्षा मीडिया से जुड़ी होती है। यही कारण है कि वे कहते हैं, “मीडिया को अपनी जिम्मेदारी स्वीकारनी होगी, अन्यथा लोग आपको नकार देंगे। अगर आप अपेक्षित तटस्थता के साथ, सत्य के साथ खड़े नहीं हुए, तो मीडिया की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े हो जायेंगे। इसलिए मीडिया को अपनी विश्वसनीयता को बचाये रखने की जरुरत है। यह तभी होगा, अगर हम तथ्यों के साथ खिलवाड़ न करें और एजेंडा पत्रकारिता से दूर रहें।” कुमार श्रीकांत से बातचीत में वे कहते भी हैं, “पत्रकारिता से सब मूल्यों का ह्रास हो गया है, यह कहना ठीक नहीं है। 90 प्रतिशत से अधिक पत्रकार ईमानदारी के साथ अपने काम को अंजाम देते हैं। यह कह देना कि सभी पत्रकार इस तरीके के हो गए हैं, यह ठीक नहीं है।”

संजय द्विवेदी मीडिया को सिर्फ और सिर्फ सवाल खड़ा करने वाला नहीं मानते। वे मानते हैं कि सवाल के जवाब को ढूंढने का काम भी मीडिया का है। मीडिया यदि इस काम में आगे आए, तो समाज की कई समस्याओं को समाधान स्वतः हो जाएगा। वे कहते हैं, “सवाल उठाना मीडिया का काम है ही, लेकिन सवालों के जवाब खोजना भी मीडिया का ही काम है। यह उत्तर खोजने का काम आप सरकार के आगे नहीं छोड़ सकते।”
 
अजीत द्विवेदी से बातचीत में वे गहरे तौर पर कहते हैं, “पत्रकार का तथ्यपरक होना बेहद जरूरी है। सत्य का साथ पत्रकार नहीं देगा, तो और कौन देगा?” वे किसी साक्षात्कार में आने वाले मीडिया विद्यार्थियों को सलाह भी देते हैं कि “परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। अगर आपके अंदर क्रिएटिविटी नहीं है, आइडियाज नहीं है, भाषा की समझ नहीं है, समाज की समझ नहीं है और सबसे महत्वपूर्ण समाज की समस्याओं की समझ नहीं है, तो आपको पत्रकारिता के क्षेत्र में नहीं आना चाहिए।”

मीडिया में हो रहे बदलाव को लेकर संजय द्विवेदी सोचते हैं कि “न्यूज सलेक्शन का अधिकार अब रीडर को दिया जा रहा है। पहले एडिटर तय कर देता था कि आपको क्या पढ़ना है। आज वह समय धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। आज आप तय करते हैं कि आपको कौन-सी न्यूज चाहिए। धीरे-धीरे यह समय ऐसा आएगा, जिसमें पाठक तय करेगा कि किस मीडिया में जाना है।” आरजे ज्योति से कहते हैं, “मीडिया बहुत विकसित हो गया है। आज उसके दो हथियार हैं। पहला है भाषा, जिससे आप कम्युनिकेट करते हैं। जिस भाषा में आपको काम करना है, उस भाषा पर आपकी बहुत अच्छी कमांड होनी चाहिए। दूसरी चीज है टेक्नोलॉजी। जिस व्यवस्था में आपको बढ़ना है, उसमे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होता है। एक अच्छे जर्नलिस्ट के दो ही आधार होते हैं कि वह अच्छी भाषा सीख जाए और उससे तकनीक का इस्तेमाल करना आ जाए।”

संजय द्विवेदी सकारात्मक सोच के व्यक्ति हैं और वे टीवी मीडिया को लेकर अलग नजरिया रखते हैं। वे कहते हैं कि “टीवी से आप बहुत ज्यादा उम्मीद रख रहे हैं। टीवी ड्रामे का माध्यम है, वहां दृश्य रचने होते हैं।” “दर्शकों और पाठकों को भी मीडिया साक्षर बनाने का सोचिये। सारा ठीकरा मीडिया पर मत फोड़िये। हमें पाठक और दर्शक की सुरुचि का विकास भी करना होगा।” हालांकि एक बातचीत में वे कहते नजर आते हैं, “1991 के बाद मीडिया का ध्यान धीरे-धीरे डिजिटल की तरफ बढ़ने लगा। मीडिया कन्वर्जेंस का टाइम हमें दिख रहा है। यानी एक साथआपको अनेक माध्यमों पर सक्रिय होना पड़ता है। अगर आप प्रिंट मीडिया के हाउस हैं, तो आपको प्रिंट के साथ-साथ टीवी, रेडियो और डिजिटल पर भी रहना पड़ेगा और इसके अलावा ऑन ग्राउंड इवेंट्स भी करने होंगे। यानी आप एक साथ पांच विधाओं को साधते हैं।”

संजय द्विवेदी इस पुस्तक में एक जगह कहते हैं कि, “हमारी जो सोचने की क्षमता है, हमारा जो मौलिक चिंतन है, वह सोशल मीडिया से नष्ट हो रहा है। धीरे-धीरे सोशल मीडिया के बारे में जानकारी के साथ-साथ हमें उसके उपयोग की विधि सीखनी होगी। हमें उसका उपयोग सीखना होगा। हमें सोशल मीडिया हैंडलिंग सीखनी पड़ेगी, वरना हमारे सामने दूसरी तरह के संकट पैदा होंगे।”

अनिल निगम के साथ बातचीत में कहते हैं, “सोशल मीडिया अभी मैच्योर पोजीशन में नहीं है और लोगों के हाथों में इसे दे दिया गया है। इसका इस्तेमाल करने वाले लोग प्रशिक्षित पत्रकार नहीं हैं। वे ट्रेंड नहीं हैं। उनको बहुत भाषा का ज्ञान भी नहीं है। वे कानून पढ़कर भी नहीं आये हैं।  वे लिखते हैं और इसके बाद जेल भी जाते हैं।”

मीडिया के बदलते रुतबे और कार्यप्रणाली को लेकर द्विवेदी सजग हैं और कहते हैं, “मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है। अखबारों के पेज बढ़े हैं, संस्करण बढे हैं। जिले-जिले के पेज बनते हैं। आज अखबार लाखों में छपते और बिकते हैं। चीन, जापान और भारत आज भी प्रिंट के बड़े बाजार हैं। यहां ग्रोथ निरंतर हैं। ऐसे में अपना प्रसार बढ़ाने के लिए स्पर्धा में स्कीम आदि के कार्य होते हैं।” वहीं, कॉर्पोरट के द्वारा मीडिया इंडस्ट्री के संचालन में किसी भी तरह का नयापन या आश्चर्य उन्हें नहीं दिखता है, उलटे वे सवाल करते हैं कि “इतने भारी-भरकम और खर्चीले मीडिया को कॉर्पोरेट के अलावा कौन चला सकता है? सरकार चलाएगी तो उस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। समाज या पाठक को मुफ्त का अखबार चाहिए। आप अगर सस्ता अखबार और पत्रिकाएं चाहते हैं, तो उसकी निर्भरता तो विज्ञापनों पर रहेगी। अगर मीडिया को आजाद होना है तो उसकी विज्ञापनों पर निर्भरता कम होनी चाहिए। ऐसे में पाठक और दर्शक उसका खर्च उठाएं। अगर आप अच्छी, सच्ची, शोधपरक खबरें पढ़ना चाहते हैं तो खर्च कीजिये।”

नीरज कुमार दुबे से बातचीत में संजय द्विवेदी कहते हैं, “मैं सभी शिक्षकों से यही आग्रह करता हूं कि वे अपने विद्यार्थियों से वही काम कराएं, जो वे अपने बच्चों से कराना चाहेंगे। यह ठीक नहीं है कि आपका बच्चा तो अमेरिका के सपने देखे और आप अपने विद्यार्थी को ‘पार्टी का कॉडर’ बनायें। यह धोखा है।” उनका कहना है कि हमारे पास “दो शब्द हैं, ‘एक्टिविज्म’ और दूसरा है ‘जर्नलिज्म’। वे कहते हैं कि कहीं-न-कहीं पत्रकारों को एक्टिविज्म छोड़ना होगा और जर्नलिज्म की तरफ आना होगा। जर्नलिज्म के मूल्य हैं खबर देना। हमें अपने मूल्यों की ओर लौटना होगा, अगर हम एजेंडा पत्रकारिता करेंगे, एक्टिविज्म का जर्नलिज्म करेंगे या पत्रकारिता की आड़ में कुछ एजेंडा चलने की कोशिश करेंगे, तो हम अपनी विश्वसनीयता खो बैठेंगे और हमें इससे बचना चाहिए।”

एक साक्षात्कार में संजय द्विवेदी कहते हैं, “हमें यह देखना होगा कि दुनिया के अंदर मीडिया शिक्षा में किस तरह के प्रयोग हुए हैं। उन प्रयोगों को भारत की भूमि में यहां की जड़ों से जोड़कर कैसे दोहराया जा सकता है। पत्रकारिता एक प्रोफेशनल कोर्स है। यह एक सैद्धांतिक दुनिया भर नहीं है…हमें मीडिया में नेतृत्व करने वाले लोग खड़े करने पड़ेंगे और यह जिम्मेदारी मीडिया में जाने के बाद नहीं शुरू होती। हमें मीडिया शिक्षण संस्थाओं से ही लीडर खड़े करने पड़ेंगे। जब लीडर खड़े होंगे, तभी मीडिया का भविष्य ज्यादा बेहतर होगा। मीडिया एजुकेशन देने वाले संस्थानों की यह जिम्मेदारी है कि इन संस्थानों से लीडर खड़े किए जाएं और वे प्रबंधन की भूमिका में भी जाएं।”

संजय द्विवेदी का मानना है कि  “जैसा हमारा समाज होता है, वैसे ही हमारे समाज के सभी वर्गों के लोग होते हैं। उसी तरह का मीडिया भी है। तो हमें समाज के शुद्धिकरण का प्रयास करना चाहिए। मीडिया बहुत छोटी चीज है और समाज बहुत बड़ी चीज है। मीडिया समाज का एक छोटा-सा हिस्सा है। मीडिया ताकतवर हो सकता है, लेकिन समाज से ताकतवर नहीं हो सकता…याद रखिये कि मीडिया अच्छा हो जाएगा और समाज बुरा रहेगा, ऐसा नहीं हो सकता। समाज अच्छा होगा, तो समाज जीवन के सभी क्षेत्र अच्छे होंगे।”

पुस्तक ‘जो कहूंगा, सच कहूंगा’ के संपादकीय में सम्पादक द्वय डॉ. सौरभ मालवीय और लोकेंद्र सिंह लिखते हैं, “संजय द्विवेदी अपने समय के साथ संवाद करते हैं। अपने समय से साथ संवाद करना उनकी प्रकृति है। इसलिए संवाद के जो भी साधन जिस समय में उपलब्ध रहे, उसका उपयोग संजय जी ने किया। जो विषय उन्हें अच्छे लगे या जिन मुद्दों पर उन्हें लगा कि इन पर समाज के साथ संवाद करना आवश्यक है, उन्होंने परंपरागत और डिजिटल मीडिया का उपयोग किया।” इस बात को संजय द्विवेदी भी एक जगह कहते हैं, “समय के साथ रहना, समय के साथ चलना और अपने समय से संवाद करना मेरी प्रकृति रही है। मैं पत्रकारिता का एक विद्यार्थी मानता हूं और अपने समय से संवाद करता हूं।”

वहीं, रिजवान अहमद सिद्दीकी से बातचीत में संजय द्विवेदी एक आदर्श व्यक्तित्व प्रस्तुत करते हैं और वे कहते है, “जो काम मुझे मिला, ईमानदारी से, प्रामाणिकता से और अपना सब कुछ समर्पित कर उसे पूरा किया। कभी भी ये नहीं सोचा कि ये काम अच्छा है, बुरा है, छोटा है या बड़ा है। और कभी भी किसी काम की किसी दूसरे काम से तुलना भी नहीं की। किसी भी काम में हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास किया। यही मेरा मंत्र है।” साथ ही, दूसरों से उम्मीद करते हुए कहते हैं, “अपने काम में ईमानदारी और प्रमाणिकता रखने के साथ परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है। सामान्य परिवार से आने वाले बच्चों के पास दो ही शक्ति होती है, उनकी क्रिएटिविटी और उनके आइडियाज, अगर परिश्रम के साथ काम करते हैं तो अपार संभावनाएं हैं।” इतना ही नहीं, वे कार्य को देशहित से भी जोड़ते हैं। पुस्तक में एक स्थान पर वे कहते हैं, “हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में अपना काम ईमानदारी से कर रहा है, वह देशहित में ही कर रहा है।”

इस संपादित पुस्तक में कुल जमा 25 साक्षात्कार हैं, जो विभिन्न समय पर लिए गए हैं। ये साक्षात्कार डॉ. ऋतेश चौधरी, सौरभ कुमार, विकास सिंह, एसडी वीरेंद्र, रिजवान अहमद सिद्दीकी, डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी, अजीत द्विवेदी, कुमार श्रीकांत, विकास सक्सेना, नीरज कुमार दुबे, डॉ. अनिल निगम, डॉ. विष्णुप्रिय पांडेय, आनंद पराशर, प्रगति मिश्रा, राहुल चौधरी, आरजे ज्योति, आशीष जैन, सौम्या तारे, गौरव चौहान, माया खंडेलवाल, शबीना अंजुम, डॉ. रुद्रेश नारायण मिश्रा एवं शिवेंदु राय द्वारा लिए गए हैं। कुल 256 पेज की यह पुस्तक कई मायनों में अलग है, जिसे मीडिया में विद्यार्थियों, शिक्षाविदों और मीडियाकर्मियों को पढ़नी और गढ़नी चाहिए।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू में सहायक प्राध्यापक हैं।)

Created On :   20 Sep 2022 11:47 AM GMT

Tags

और पढ़ेंकम पढ़ें
Next Story