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अवध किसान सभा के 100 साल पूरे

हाईलाइट
- अवध किसान सभा के 100 साल पूरे
नई दिल्ली, 17 अक्टूबर (आईएएनएस)। अवध किसान सभा 17, अक्टूबर 2019 को अपनी स्थापना के सौवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। यह संगठन भारत के किसान आंदोलनों से जुड़े सबसे पुराने संगठनों में एक है और इसकी स्थापना बैठक में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी शामिल हो चुके थे।
अलग तेवर वाले अवध किसान आंदोलन का शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है, लेकिन बीते कई दशकों में इतिहास के इस गौरवशाली अध्याय पर इतनी धूल जम चुकी है कि अवध के किसान भी इसे विस्मृत सा कर चुके हैं। यह अलग बात है कि इस पर तमाम शोध हुए, ढेरों पुस्तकें भी लिखी गईं, फिर भी इस आंदोलन की नींव के पत्थरों पर लोगों का ध्यान कम ही गया।
आमतौर पर अध्येताओं और आम लोगों में अवध किसान सभा के संस्थापक के रूप में बाबा रामचंद्र की छवि ही बसी है, जिन्होंने सहदेव सिंह और झींगुरी सिंह के सहयोग से अवध किसान सभा की स्थापना की। लेकिन मूल संगठन तो प्रतापगढ़ जिले तक ही सीमित था। इसे पूरे अवध के स्तर पर खड़ा करने का मूल विचार इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील माताबदल पांडेय का था जो प्रतापगढ़ के ही निवासी थे। इस तरह अवध किसान सभा पांडेय की मानस संतान है।
तमाम स्रोतों से अवध किसान सभा की गतिविधियों की पुष्टि होती है। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक इंडिपेंडेंट के 27 अक्टूबर, 1920 के अंक में विस्तार से यह खबर प्रकाशित की गई थी कि 17 अक्टूबर 1920 को अवध किसान सभा का गठन प्रतापगढ़ के रूर गांव में किया गया। इससे संबंधित सभा में करीब पांच हजार किसान दूर दराज से शामिल हुए थे। इसी बैठक में वकील माताबदल पांडेय ने पूरे अवध क्षेत्र के लिए किसान सभा बनाने पर बल दिया था, जबकि इस बैठक का एजेंडा 150 ग्रामों में स्थापित किसान सभाओं को मिलाकर प्रतापगढ़ जिले में किसानों का संगठन बनाना था।
इस बैठक में पंडित जवाहरलाल नेहरू, प्रतापगढ़ के डिप्टी कमिश्नर वैकुंठ नाथ मेहता, संयुक्त प्रांत किसान सभा के गौरी शंकर मिश्र रायबरेली के किसान नेता माताबदल मुराई समेत बाबा रामचंद्र, सहदेव सिंह और झींगुरी सिंह मौजूद थे। वहां मौजूद लोगों ने माता बदल पांडेय की राय को तवज्जो दी। नवगठित संगठन का नाम अवध किसान सभा रखा गया और पांडेय को इस सभा का मंत्री भी चुना गया।
इस आंदोलन को नेतृत्व देने वाले नेताओं में बाबा रामचंद्र के साथ स्थानीय नेता सहदेव सिंह, झींगुरी सिंह, अयोध्या, भगवानदीन, काशी, अक्षयवर सिंह, माताबदल मुराई और प्रयाग के कई नामों का उल्लेख तो मिलता है, लेकिन जनमानस इनके योगदान से खास परिचित नहीं है।
वैसे तो अवध किसान सभा की मातृ संस्था रूर किसान सभा की स्थापना सहदेव सिंह ने की थी, लेकिन इसकी गतिविधियों ने रफ्तार तब पकड़ी जब झींगुरी सिंह और उनके चचेरे भाई दृगपाल सिंह इसमें जोर शोर से जुटे। इन्होंने ही फीजी से लौटे गिरमिटिया बाबा रामचंद्र को इस सभा से जोड़ा। इसके बाद एक ऐसे इतिहास की रचना शुरू हुई जो कालांतर में भारत के किसान आंदोलन का एक स्वर्णिम अध्याय बना।
वैसे तो प्रतापगढ़ की जनश्रुतियों में आरंभिक यानी रूर गांव की किसान सभा की स्थापना का दौर सन् 1904 माना जाता है। लेकिन इसके कोई भी दस्तावेजी प्रमाण नहीं मिलते।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, किसान सभा की स्थापना 1914 के करीब सहदेव सिंह ने की। शुरुआत में यह किसानों को रामायण सुनाने का मंच मात्र थी। बाद में इसमें किसानों की समस्याओं पर चर्चा होने लगी और यह आंदोलन का मंच बन गई। झींगुरी सिंह के जुड़ने के बाद इसमें काफी बदलाव आया।
सहदेव सिंह कोलकाता में एक फर्म किंग ब्रदर्स में नौकरी करते थे और बंगाल के माहौल का उन पर भी असर पड़ा। इसकी परिणति रूर किसान सभा के रूप में हुई। झींगुरी सिंह के प्रयास से रामायण सुनने के लिए एकत्रित होने वाले किसान अपने अधिकारों और ताल्लुकेदारों की ज्यादतियों पर भी चर्चा करने लगे। उनको अपने अधिकारों के लिए लड़ने का हौसला मिला।
फीजी से लौटे गिरमिटिया बाबा रामचंद्र की ख्याति उन दिनों रामचरित मानस के अध्येता के तौर पर हो चुकी थी। बाबा भी इस सभा से जुड़े और रामचरित मानस की एक पंक्ति राज समाज विराजत रूरे के संदर्भ में रूर गांव को रूरे के रूप में स्थापित कर दिया और उसमें एक पंक्ति जोड़ दी, रामचंद्र सहदेव झींगुरे। बाबा रामचंद्र ने भी रूर किसान सभा की स्थापना 1917 के आस-पास की बताई है।
बाद में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में ही सैकड़ों किसानों का जत्था रूर (प्रतापगढ़) से पैदल चलकर महात्मा गांधी से मिलकर अपनी व्यथा सुनाने 6 जून, 1920 को इलाहाबाद पहुंचा था, लेकिन गांधीजी वहां से वापस जा चुके थे। फिर भी किसान बलुआघाट पर डेरा जमाए रहे और वहां उनसे मिलने पंडित जवाहरलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन और गौरीशंकर मिश्र जैसे नेता पहुंचे। बाबा व झींगुरी सिंह ने उनको किसानों की व्यथा सुनाई और हालात का जायजा लेने का न्योता भी दिया। इसी के बाद नेहरू ने प्रतापगढ़ के पट्टी क्षेत्र के गांवों का दौरा किया।
किसान सभा का नेतृत्व बाबा रामचंद्र के पास था, लेकिन उसके पीछे जनबल पट्टी क्षेत्र के कुर्मी जाति के किसानों और हौसला झींगुरी सिंह और सहदेव सिंह का था, जो क्षेत्र के शक्तिशाली वत्स गोत्रीय क्षत्रिय परिवार से संबंध रखते थे। क्षेत्र के अधिकांश ताल्लुकेदार भी वत्स गोत्रीय क्षत्रिय ही थे। झींगुरी सिंह सगोत्रीय ताल्लुकेदारों की आंखों की किरकिरी भले बने, लेकिन असहाय पीड़ित किसानों का संबल बनकर उभरे।
इस किसान आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया, जब 28 अगस्त 1920 को प्रतापगढ़ के पट्टी क्षेत्र की लखरावां बाग में सभा कर रहे बाबा रामचंद्र व झींगुरी सिंह सहित 32 लोगों को ताल्लुकेदारों ने लकड़ी चोरी के फर्जी मामले में गिरफ्तार करवा कर जेल भिजवा दिया। माताबदल पांडेय व परमेश्वरी लाल ने अदालत में इन किसान नेताओं की पैरवी की। यह घटना किसान आंदोलन का स्वर्णिम अध्याय है, जब हजारों किसानों ने घेरा डालकर प्रतापगढ़ के प्रशासन को इन नेताओं को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। हालांकि इसके पहले इनकी जमानतें भी खारिज कर दी गई थीं। इसी घटनाक्रम ने बाबा रामचंद्र को किसान नेता के रूप में स्थापित कर दिया।
इस आंदोलन पर पहला विस्तृत शोध माजिद हयात सिद्दीकी ने किया। बाद में कपिल कुमार, वीर भारत तलवार, ज्ञान पांडेय, सुशील श्रीवास्तव, जे एस नेगी, निशा राठौर व अंशु चौधरी आदि ने भी अपने शोधों में इस आंदोलन के कई पहलुओं पर रोशनी डाली। पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इसको महत्वपूर्ण स्थान दिया है फिर भी तमाम शोधकर्ताओं के शोधों के वावजूद अवध का आज का जनमानस इस आंदोलन से प्राय: अपरिचित ही है।
आंदोलन का सौवां वर्ष शुरू होने पर भी न तो सरकार और न ही किसान हितैषी होने का दम भरने वाले राजनैतिक दल इसकी याद में कहीं सक्रिय दिख रहे हैं। आंदोलन के इतिहास को सहेजने की दिशा में कुछ वैयक्तिक प्रयास जरूर चल रहे हैं।
पत्रकार फिरोज नकवी, साहित्यकार राजीव कुमार पाल व बंधु कुशवर्ती, संजय जोशी, प्रेम शंकर सिंह इस दिशा में अपनी अपनी व्यक्तिगत क्षमता से जुटे हैं। इन प्रयासों को इतिहासकार डॉ. हेरम्ब चतुर्वेदी, साहित्यकार कमलाकांत त्रिपाठी, पत्रकार अरविंद कुमार सिंह सुभाष राय, कृष्णपाल सिंह, सुमन गुप्ता आदि का सहयोग मिल रहा है।
आंदोलन में शामिल रहे किसान नेताओं के वंशजों में श्रीराम पासी, दिनेश सिंह, विरल पांडेय, अमित मिश्रा, बिंदु द्विवेदी, रघुवीर मौर्य आदि का सहयोग भी इतिहास संरक्षण में महत्वपूर्ण है।
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