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बेदखल कर दिए जाएंगे 14848 परिवार, वनों से होंगे विस्थापित

डिजिटल डेस्क, चंद्रपुर। ऐतिहासिक चंद्रपुर जिले के जंगलों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी घने जंगलों में रहकर गुजारा करने वाले आदिवासी व गैरआदिवासियों पर वन हक कानून का व्यापक असर अब दिखने लगा है। बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने वन जमीन के खारिज किए गए मामलों पर राज्य सरकार को आदेश देते हुए संबंधितों को वन जमीन से सख्ती से हटाने के निर्देश दिए। 24 जुलाई तक यह कार्रवाई होगी। न्यायालय के इस फैसले से जिले के 14 हजार 848 परिवार वन भूमि से बेदखल कर दिए जाएंगे। विस्थापित होने वाले इन परिवारों के लिए सरकार के पास फिलहाल कोई समाधान या योजना उपलब्ध नहीं है। यदि कोर्ट के आदेश पर सख्ती से अमल हुआ तो जिले के जंगलों में वन विभाग के साथ तनाव की स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। जिले में कुल 18989 परिवारों ने पट्टों के लिए आवेदन किया था। इनमें से महज 3611 को मंजूरी मिली है।
मुख्यमंत्री ने नहीं निभाया वादा
इस कानून के लागू होने के पूर्व वर्ष 2000 से ही वन जमीन अतिक्रमणधारकों को पट्टे देने की मांग को लेकर जिले में आंदोलन जारी है। 22 नवंबर 2018 को श्रमिक एल्गार ने मुख्यमंत्री से भेंट की और समस्या की गंभीरता बताई। इस पर उन्होंने एक माह के भीतर सभी दावेदारों पर लादे गए तीन पीढ़ियों का प्रमाण पेश करने की शर्त को शिथिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करने का लिखित आश्वासन दिया था। 6 जनवरी 2019 को राजुरा के बैलमपुर में केंद्रीय मंत्री हंसराज अहिर ने आश्वस्त किया था। दोनों ने आश्वसनों की पूर्ति नहीं की।
क्या है समस्या
वन व उससे सटे क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों को वन जमीन पट्टे पाने के लिए आवेदन के साथ ग्रामसभा की मंजूरी का प्रस्ताव जोड़ना होता है। अनेक मामले इसके अभाव में प्रशासनीक स्तर पर नामंजूर हुए हैं। राजस्व विभाग की जमीन पर अतिक्रमण व आवेदक का प्रत्यक्ष कब्जा न होना भी नामंजूरी का प्रमुख कारण है। गैरआदिवासियों के लिए सरकार ने वर्ष 1929 का निवासी प्रमाण मांगा है। यह शर्त इतनी जटिल है कि किसी भी गैरआदिवासी के पास इसका प्रमाण नहीं है। विभाग स्तर पर प्रस्ताव नामंजूर होने के बाद 60 दिनों में अपील आवेदन करना अनिवार्य बनाया गया है। आदिवासी व गैरआदिवासी में भेद निर्माण हो रहा है।
क्या है स्थिति
गांवों में विविध समुदाय के लोग, राजनीति व आपसी द्वेष के चलते ग्रामसभा में वन पट्टों को मंजूरी नहीं देते। मौसमी रोजगार व पलायन से जमीनी कब्जा लावारिस नजर आता है। चूंकि आवेदक वनों में रहता हैं तो उनकी शिक्षा व कानूनी समझ कम होती है। 60 दिनों में वे अपील कर नहीं पाते। किसी भी गैरआदिवासी के पास 75 वर्ष पुराना रेकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। गरीबी, शिक्षा का अभाव, संसाधनों की कमी, रखरखाव की दिक्कतों के चलते उनके पास कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है।
क्या है समाधान
सरकार को चाहिए कि वे वन निवासियों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कानून की इन जटिल शर्तों में शिथिलता लाने के लिए सुधार पूर्ण प्रावधान करें। क्षेत्र के सांसद अपने जिले के आदिवासी व गैरआदिवासियों के नामंजूर किए गए प्रस्तावों को मंजूरी दिलाने के लिए प्रयास करें और संसद में कानून के बदलाव की पहल करें।
दस्तावेजों की कमी से नामंजूर
वन जमीन के जितने भी प्रस्ताव नामंजूर हुए हैं, उसके लिए आवेदकों द्वारा आवश्यक दस्तावेज पेश नहीं जाना, जिम्मेदार है। कानून में दर्ज प्रावधानों के अनुसार गैरआदिवासियों को निवास संबंधित 75 वर्ष पुराना प्रमाण देना अनिवार्य है। इसके अलावा ग्रामसभा में 50 फीसदी लोगों की मंजूरी आवश्यक है। कुछ लोगों ने राजस्व विभाग की भूमि पर अतिक्रमण कर रखा है। यह कानून वन जमीन पर मालिकाना अधिकार देता है। इसलिए राजस्व के मामले खारिज कर दिए गए।
- डॉ. कांचन जगताप, सहायक अधीक्षक, राजस्व विभाग, चंद्रपुर
Created On :   1 March 2019 3:30 PM IST