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भारत में बनने वाली फिल्में रियलिस्टिक नहीं होती- रजुला शाह

डिजिटल डेस्क, नागपुर। साहित्य और सिनेमा ऐसे माध्यम हैं, जिसमें समाज को बदलने की ताकत सबसे अधिक होती है। कहना गलत न होगा कि सिनेमा, साहित्य से अधिक प्रभावशाली और आम जनता तक सरलता से पहुंचने वाला माध्यम है, लेकिन भारत में बनने वाले सिनेमा रियलिस्टिक नहीं है। ये कहना है मशहूर फिल्म मेकर रजुला शाह का, वे सिनेमोंटाज फिल्म सोसाइटी के 40वें फांउडेशन दिवस पर शनिवार को "चेंजिंग प्रैक्टिस ऑफ सिनेमा" विषय पर बोल रहीं थीं।
फिल्म मेकिंग बदल गई है
भोपाल की रहने वाली रजुला शाह मशहूर फिल्म मेकर हैं। कार्यक्रम का आयोजन दीनानाथ हाईस्कूल के एवी हॉल में शनिवार शाम 6 बजे किया गया। इस अवसर बुलेटिन वाइड एंगल की रिलीज हुई। रजुला शाह ने कहा कि तकनीक से काफी बदलाव आए हैं और कई नवागत प्रयोग भी हो रहे हैं। अभी सेट कैटेगरीज ब्रेक हो रही हैं। हमारे आसपास बहुत सी कहानियां हैं पर फिल्म मेकर्स उन्हें नहीं देख पा रहे हैं। सिनेमा अब डिजिटल हो गया है। बहुत बदलाव आए हैं, विदेशों से फंडिंग भी हो रही है।
नए काम पर लोग फोकस कर रहे हैं। धीरे-धीरे फिल्म मेकिंग बदल गई है। सांउड और कैमरा वर्क में बहुत फर्क देखने मिल रहा है। संपादन में भी काफी वर्क हो रहा है। फिल्म मीडियम बेशक समाज में जागरूकता या शिक्षा उन्मुखी उद्देश्यों के लिहाज से बहुत ही सशक्त माध्यम समझा जाता है, लेकिन विडंबना यह रही है कि फिल्म मीडिया खासतौर पर भारतीय फिल्म मीडिया अभी रियलिस्टक नहीं हुआ है।
अभी स्पीड ज्यादा है
टाइम फैक्टर के बारे में राजुल शाह ने कहा कि पहले प्रेमचंद की कहानी पर फिल्म बनी थी। वो अब के जेनेरेशन को पंसद नहीं आएगी, क्योंकि वो स्लो मानी जाती हैं। अभी स्पीड ज्यादा है। अभी वियुअरशिप भी बढ़ गई है, इंडियन सिनेमा का भी नया रूप सामने आ रहा है। अभी पैटर्न में काफी बदलाव देखने को मिल रहे हैं। उन्होंने ईरानियन फिल्म मेकर शिरीन निशाद की फिल्म के बारे में भी बात की और ईवरी बडी हर्ट्स गीत के माध्यम से चेंज के बारे में समझाया। ज्ञात रहे कि सिनेमोंंटाज की स्थापना 1978 को हुई थी। इसके संस्थापक गोरा गांगुली थे। हाल में इसके अध्यक्ष राम तायडे-देशमुख बने हैं।
Created On :   15 April 2018 6:18 PM IST