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ऐतिहासिक वस्तुओं के संग्रह का शौक: चोर बाजार में मिली पगड़ी बांधे हुए गांधीजी की दुर्लभ कलाकृति
डिजिटल डेस्क, नागपुर। शहर के शनिवारी बाजार में कई वस्तुएं सस्ते में मिल जाती हैं। यहां कबाड़ में अच्छी वस्तुएं और सामान भी मिलते हैं। कॉटन मार्केट के पास लगने वाले शनिवारी बाजार से एक व्यापारी उमेश अग्रवाल को महात्मा गांधी की दुर्लभ कलाकृति मिली थी। अग्रवाल ने बताया कि जब उन्होंने इस कलाकृति काे खरीदा था, तब उन्हें पता नहीं था कि यह दुर्लभ और अनमोल कलाकृति है। ऐतिहासिक वस्तुओं के संग्रह का शौक होने की वजह से उन्होंने यह खरीदी थी। यह आयजे मार्ट बंगलुरु की चांदी की बनी हुई है।
गांधीजी की इस कलाकृति को 2002 में भगिनी मंडल में आयोजित प्रदर्शनी में भी रखा गया था। उस प्रदर्शनी में मुंबई के किशोर झुंझुनवाला ने इसकी मांग भी की थी। इस कलाकृति में गांधी पगड़ी पहने हुए हैं, साथ ही नीचे गांधी का नाम एम. के. गांधी लिखा हुआ है। पगड़ी पहने हुए गांधी की तस्वीर भी नहीं देखने को मिलती है। कालांतर मंे गांधी ने यह कहकर पगड़ी बांधना छोड़ दिया था कि इस देश में निर्धन लाेगाें के पास तन ढंकने के लिए पैसे नहीं हैं और वह इतनी लंबी पगड़ी कैसे बांध सकते हैं। इस 100 साल पुरानी कलाकृति का वजन 100 ग्राम के करीब है।
स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केन्द्र बनकर उभरा था
वर्ष 1923 में स्थापित राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय मध्य भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र बनकर उभरा था। इसकी अलख महात्मा गांधी ने जगाई थी। उन्हें प्रेरणस्रोत मानकर विवि प्रशासन से लेकर शिक्षकों और विद्यार्थियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। बापू की लोकप्रियता को देखते हुए नागपुर विवि ने उन्हें वर्ष 1936 में डॉक्टर ऑफ लॉ की मानद उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय लिया था। अपने विद्यार्थी, शिक्षकों और कर्मचारियों को प्रेरित करने के उद्देश्य से तत्कालीन कुलगुरु विधिज्ञ डॉ. हरि सिंह गौर ने यह प्रस्ताव रखा था, जिसे विवि की विद्वत परिषद से लेकर कार्यकारी परिषद और सीनेट से मंजूरी मिली। तत्कालीन राज्यपाल एच.सी. गोवन ने भी इसे मंजूर किया।
नहीं आ पाए बापू
डॉ. गौर ने महात्मा गांधी को पत्र लिखकर इसकी जानकारी दी और उनकी उपस्थिति की उम्मीद में उन्हीं की सहमति के बाद दिसंबर 1938 में दीक्षांत समारोह का आयोजन किया गया, लेकिन उस वक्त कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्माण हुईं कि बापू इस कार्यक्रम से चूक गए। दूसरे विश्वयुद्ध की सुगबुगाहट, कांग्रेस नेतृत्व में बदलाव और बापू के देश भ्रमण के चलते उनका आना संभव नहीं हुआ। नागपुर विवि एक एेतिहासिक क्षण से वंचित रह गया। बाद में वीर सावरकर को 14 अगस्त 1943 में डॉक्टर ऑफ लॉ की पदवी से सम्मानित करने का फैसला लिया गया। बापू की प्रेरणा से विवि का स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान जारी रहा।
Created On :   3 Oct 2019 4:16 PM IST