जंगल से हमारा जीवन है, जब यही नहीं रहेगा तो जिंदा कैसे रहेंगे... आदिवासियों की आजीविका वन उपज से ही चल रही

डिजिटल डेस्क छतपुर । बकस्वाहा में करीब पौने चार सौ हैक्टेयर क्षेत्र के जंगल में हीरे की ओपन माइनिंग शुरू करने की कवायद के बीच आसपास के दर्जनभर गांवों की आजीविका पर संकट गहराता हुआ दिख रहा है। विशेषकर उन आदिवासी परिवारों के सामने जीवनयापन के लिए उस लघु वनोपज को लेकर चिंता की लकीरें हैं, जिस पर आज वे आश्रित हैं और उनसे ही उनके परिवार जिंदा हैं। दूसरी तरफ वन विभाग के अफसरों का रवैया चौंकाने वाला है। उनके पास बेहद टका-सा जवाब है कि हम तो वही कर रहे हैं, जो हमें सरकार आदेश देती हैं।
इन अफसरों का स्पष्ट कहना होता है, हमारे पास कोई जानकारी नहीं है, बल्कि वे आदिवासियों के ही कार्यप्रणालियों पर सवाल उठाना शुरू कर देते हैं। बकस्वाहा से करीब 12 किलोमीटर अंदर इमली घाटी नाला क्षेत्र में हीरे निकालने की प्रक्रिया सरकारी विभागों की फाइलों में तेजी से दौड़ रही है। जंगल के आसपास के शहपुरा, कसेरा हरदुआ, हृदयपुरा, गोरानांद, चंदुआ घाटी जैसे गांव हैं, जिनमें आदिवासियों के दर्जनों परिवार रहते हैं। वहीं आदिवासियों का जीवन उसी जंगल के सहारे कायम है और जंगल के बीच खेती करने तथा लघु वनोपज पर उनके परिवारों का जीवन टिका है। उन्हें इसकी जानकारी तो है कि यहां से हीरे निकाले जाएंगे और लाखों पेड़ काटे जाएंगे। इसके बाद वे क्या करेंगे, इसका जवाब वे नहीं दे पाते हैं।
लघु वनोपज के कई प्रजाति के हैं वृक्ष
जंगल में सागौन, महुआ, तेंदु, चरुआ, आंवला, बेल, कैथ सहित कई तरह की औषधियां मौजूद हैं, जिनके सहारे आदिवासियों और ग्रामीणों का जीवन कायम है। उनकी अपनी एक व्यवस्था है, जिसके तहत वे सुगमता से अपना कार्य करते हैं। आदिवासी परिवार में तो इस कार्य में पेड़ों की रक्षा का भाव भी निहित होता है। एक आदिवासी परिवार अपनी क्षमता के अनुसार 10-12 से लेकर 40-50 पेड़ों को अपनी निगरानी में रख लेता है। इसमें उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह उसकी रक्षा करे।
यहां आदिवासी की भील, गौंड़ व सौढ़ जातियां
जिस स्थान पर प्रचुर मात्रा में हीरा होने का दावा किया जा रहा है, वहां के जंगल और आसपास के गांव में भील, गौंड़ और सौढ़ जातियों के आदिवासी परिवार रहते हैं। एक आदिवासी काशीराम का कहना है कि वह और उनका परिवार जंगलों से मिलने वाले महुआ, गोंद, गुल्ली, तेंदूपत्ता, बहेरा, बेल, आंवला और अन्य चीजों से अपना घर चलाता है। साथ ही जंगल में खाली पड़ी जमीन पर वे तिल, उड़द जैसी फसलें भी लेते हैं।
क्या कहते हैं आदिवासी
पअशोक आदिवासी का कहना है कि सालभर में वे अलग-अलग चीजों से करीब एक लाख रुपए तक कमा लेते हैं। घर में तेल तो लघु वनोपज से निकाल लेते हैं और रोजमर्रा की जरूरत भी जंगल से पूरी कर लेते हैं।
पगणेश बताता है कि उसका पूरा परिवार तेंदुपत्ता बीनने का काम करता है और फिर उसे वन विभाग को बेचकर अपना गुजर-बसर करता है।
पपंखी आदिवासी कहती हैं, पेड़ कट जाएंगे तो न जाने हमारा क्या होगा। हम तो इन्हीं के सहारे रहते हैं।
पअफसर बेफिक्र
बकस्वाहा वन क्षेत्र के रेंजर एसके सचान बेहद रुखे तरीके से जवाब देते हैं। गांव के लोग जंगल की लकड़ी अपने घरों के बाड़ों में लगाने के लिए ले जाते हैं। उन्हें सिर्फ उन्हीं पेड़ों से सरोकार होता है, जिनसे उनकी आमदनी होती है।
इनका कहना है
हीरा खनन के लिए बकस्वाहा में जंगल की जमीन दिए जाने के बाद वनीकरण क्षतिपूर्ति होगी।
-सुनील अग्रवाल, अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक, भू प्रबंधन मप्र
Created On :   25 May 2021 3:13 PM IST