लोभी मनुष्य की लोभ प्रवृत्ति जानिए इस कथा से

Know the greedy tendencies of covetous human
लोभी मनुष्य की लोभ प्रवृत्ति जानिए इस कथा से
लोभी मनुष्य की लोभ प्रवृत्ति जानिए इस कथा से

डिजिटल डेस्क । मुनष्य एक ऐसा जीव है जिसकी ना तो कभी जिज्ञासा मरती है और ना ही कभी कोई इच्छा। जैसे-जैसे मनुष्य की आयु बढ़ती है उसकी लालसा बढ़ती जाती है। ये लालसा कुछ ऐसी होती है की बुढ़ापे में खाट पकड़ने के बाद भी और जीने की कामना होती है। मनुष्य की लालसा तो देख कर तो शायद भगवान भी अपनी सृजनता पर आश्चर्य करते होंगे कि उन्होंने ये कैसा जीव बना दिया। आज हम आपको मनुष्य के लोभ और लालसा की एक कहानी बताने जा रहे हैं , जो इंसानों की लोभ प्रवृत्ति की तस्वीर को और उभरेगी। 

कथा-

स्वर्ग के देवता इंद्र के पास एक व्यक्ति भिक्षा मांगने आता है। इंद्र कुबेर को आज्ञा देते हैं- यह व्यक्ति बहुत गरीब है, इसको खूब सारा धन देकर, संतुष्ट कर ही वापस करना। कुबेर उस व्यक्ति से कहता है- हे भगवन तुम्हारी जो इच्छा हो, वही मांग लो। वह गरीब व्यक्ति अपनी झोली में से एक पात्र निकाल कर कुबेर के सामने कर देता है, आप मेरे इस छोटे से पात्र को ही अपनी कीमती वस्तुओं से भर दीजिए। कुबेर ने मन ही मन सोचा, इतना छोटा- सा पात्र, इसमें दान डालना धनपति कुबेर को शोभा नहीं देता। उन्होंने याचक से कहा, कोई बड़ा पात्र ले आओ, यह तो बहुत छोटा है। 

याचक ने कहा, मुझे इतनी ही संपत्ति की आवश्यकता है, इससे ज्यादा की नहीं। कुबेर उस पात्र को भरना शुरू करते हैं, लेकिन आश्चर्य में पड़ जाते हैं। स्वर्ग की समूची संपदा डालने पर भी वह पात्र भरता नहीं, खाली बना रहता है। तब वे अपने स्वामी इंद्र के पास जाते हैं और उन्हें सारी बातें सुनाते हैं। देवेंद्र भी उस भिखारी के पात्र के बारे में सुनकर हैरान हो जाते हैं। 

फिर वे दोनों उस भिखारी से पूछते हैं, हे सज्जन आपका यह पात्र किस चीज से बना है, कृपा कर हमें भी बताएं। तब वह भिखारी बताता है, हे स्वर्ग की संपत्ति के स्वामी, यह पात्र मनुष्य की खोपड़ी से बना हुआ है। इस खोपड़ी में कितनी भी संपत्ति भर दो, यह खाली ही रहती है। यह लोभ, तृष्णा और आकांक्षाओं से भरी हुई है। इनको मिटाना और इनको भरना अत्यंत कठिन है। 

देवेंद्र और कुबेर ने उससे माफी मांगते हुए कहा, हम आपके इस पात्र को भर नहीं पाए, इसके लिए हमें क्षमा कर दीजिए। इसके बाद देवेंद्र ने फिर कहा, यदि एक मनुष्य की आकांक्षा और तृष्णा का पात्र इतना बड़ा है, तो सभी मनुष्यों की तृष्णा को शांत करना तो असंभव है। अत: संतोष ही धारण करना चाहिए। 

मनुष्य हमेशा लालच करता है। यह लालच हमारे आध्यात्मिक गुणों को नुकसान पहुंचाता है। लोभ से तृष्णा की उत्पत्ति होती है और वह अग्नि के समान है। जैसे अग्नि में ईंधन डालते हैं तब वह और प्रज्वलित होती है। ऐसे ही लोभी कभी खुद को शांत नहीं कर सकते। उसे जितना मिलता जाए, उसकी लालसा उतनी ही बढ़ती जाती है। कहावत है, "लोभ सभी पापों का बाप है"। 

"लोभी व्यक्ति हमेशा अशांत रहता है। हर वक्त कुछ न कुछ हासिल करने की उधेड़बुन में लगा रहता है। वह स्वयं भी अशांत रहता है, औरों को भी अशांत कर देता है, लेकिन संतोष शाश्वत धन है। इसके सामने दुनिया की बाकी सारी संपदाएं बौनी पड़ जाती हैं। इसलिए संतोषी व्यक्ति सदा सुखी रहता है। कपाल पात्र कभी भरता नहीं है। मनुष्य की खोपड़ी तो चिकनी भी है और उल्टी भी है। ऐसी सीधी खोपड़ी पर कुछ डालो तो बाहर निकल जाता है। और उलटी खोपड़ी पर डालो तो वह खाली रह जाता है। 

अत: सत् पुरुषों को सदा संतोष धन ही धारण करना चाहिए। इससे बढ़ कर कोई धन नहीं है, लेकिन संतोष, शाश्वत धन, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के पंचजाल से बचने का एक ही तरीका है वो है भक्ति का मार्ग, आध्यात्म का मार्ग। लेकीन भक्ति मार्ग /अध्यात्म मार्ग पर चलने के लिए हमें एक परम सहारे की आवश्यकता होती है वो सहारा होता है "सदगुरू" केवल सदगुरू ही हमें भक्ति और अध्यात्म की सही राह पर ले जा सकता है। वो ही हमें शाश्वत धन दे सकता है, वो ही हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के पंचजाल से मुक्त कर सकता है और जिंदगी भर दुखों से मुक्त कर सकता है। 

Created On :   26 May 2018 9:07 AM IST

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