क्यों दी गई है धर्म ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा ? 

Pitru Paksha: Know Why Ancestors Are Similar To God
क्यों दी गई है धर्म ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा ? 
क्यों दी गई है धर्म ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा ? 

डिजिटल डेस्क, भोपाल। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है, इसलिए ही श्राद्ध के 16 दिन हम पितरों को पूजते हैं। लेकिन हम ये नहीं जानते कि ऐसा क्यों ? पितरों को देवताओं के समान संज्ञा क्यों दी गई है। दरअसल "सिद्धांत शिरोमणि" ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊर्ध्व कक्षा में पितृलोक है जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से खुली आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल शरीर से अलग होती है तब उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं।

यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाता है मृत्यु हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर वातावरण में विद्यमान रहता है। हिंदू शास्त्र मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता है। तब मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास ही घूमता-फिरता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव की अंतर आत्मा को तृप्ति मिलती है इसलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।

ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितृ को मिलता है। वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है। पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत हुए को खाता है। यदि शुभ कर्म के कारण मृत्यु के बाद पिता देवता बन गया तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि में प्राप्त होगा।

गंधर्व बन गया हो तो वही अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है। पशु बन जाने पर घास के रूप में परिवर्तित होकर उसे तृप्त करेगा। यदि नाग योनि मिली तो श्राद्ध का वही अन्न वायु के रूप में तृप्ति को प्राप्त होगा। दानव, प्रेत व यक्ष योनि मिलने पर श्राद्ध का अन्न अनेक प्रकार के अन्न पान और भोगरसादि के रूप में परिणत होकर प्राणी की अंतरात्मा को तृप्त करेगा।

शुद्ध और सच्चे मन, विश्वास, श्रद्धा के साथ किए गए संकल्प की पूर्ति होने पर पितृ को आत्मिक शांति मिलती है। तब वे हम पर आशीर्वाद रूपी अमृत की वर्षा करते हैं। श्राद्ध की संपूर्ण प्रक्रिया दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके ही की जाती है। इस अवसर पर तुलसी दल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

श्राद्ध कर्म पिंडदान आदि गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में करने का विशेष महत्व बताया गया है। जिस दिन भी श्राद्ध करें उस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें। श्राद्ध के दिन आप क्रोध, चिड़चिड़ापन और कलह या बहस से दूर रहें। पितृ को भोजन सामग्री देने के लिए अधिकतम मिट्टी के पात्र (बर्तनों) का ही प्रयोग करें तो विशेष फल प्राप्त होता है। केले के पत्ते या लकड़ी के बर्तन का भी प्रयोग किया जा सकता है। 

Created On :   2 Oct 2018 6:30 PM IST

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