मां विन्ध्यवासिनी जयंती: आज है मां विन्ध्यवासिनी जयंती, जानिए कथा

Vindhyavasini Jayanti 2018: Know Vindhyavasini Jayanti Date, Significance and Story
मां विन्ध्यवासिनी जयंती: आज है मां विन्ध्यवासिनी जयंती, जानिए कथा
मां विन्ध्यवासिनी जयंती: आज है मां विन्ध्यवासिनी जयंती, जानिए कथा

डिजिटल डेस्क, भोपाल। विन्ध्यवासिनी जयंती पर्व भाद्रपद मास (भादों) में शुक्ल पक्ष की दूज को मनाया जाता है और इसे सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं को जीवंत करने के लिए भी जाना जाता है। जो इस बार 28 अगस्त 2018 को है। भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल पर्वत सदा उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरि को जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है।

मां विंध्यवासिनी कथा

महाभारत के विराट पर्व पर धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं-

विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।

भावार्थ- हे माता! आप पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचल पर आप सदैव विराजमान रहती हैं।

पद्मपुराण में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है-

विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।

श्रीमद् देवीभागवत के दशम स्कन्द में कथा आती है, कि जब सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सृष्टि के आरंभ में अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को प्रगट किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव और मनु ने स्वयं के कर कमलों से देवी की प्रतिमा बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया।

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती विंध्यांचल देवी ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम उच्च पद प्राप्त करने का वरदान दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चली गई। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीष के द्वारा हुआ है।

त्रेता युग में भगवान श्री रामचन्द्र जी,सीता जी के साथ विंध्याचल आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के द्वारा स्थापित शिव ज्योतिर्लिंग स्वरुप रामेश्वरम से इस शक्तिपीठ की महानता और बढ़ जाती है।

द्वापर युग में मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेव जी के कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्री कृष्णावतार हेतु विंध्याचल में जाकर लक्षचण्डी का अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप श्री कृष्ण जी गोकुल में नन्दबाबा जी के यहां हुए।

मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, कि हे देवताओं वैवस्व तमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दबाबा के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूंगी और उन दोनों असुरों का नाश करूंगी।

लक्ष्मी तंत्र नामक ग्रंथ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन मिलता है। गोकुल में नन्द बाबा के यहां उत्पन्न महालक्ष्मी की अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया।

मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहां उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण के श्रीकृष्ण- जन्मव्याख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेव जी ने कंस के भय से रातों रात यमुना जी के पार गोकुल में नन्द जी के घर पहुंचा दिया तथा वहां यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मी भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए।

आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुंचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटककर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुंच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया और कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल को लौट गईं।

मंत्र शास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदा तिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान रुपी स्त्रोत बताया गया है-

सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां
चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयांगदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां
ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पा‌र्श्वस्थपंचाननाम्


अर्थ-
जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, कंठ में सुन्दर माला, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कनक कुण्डल धारण किए इस देवी की इन्द्रादि सभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचल पर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुन्दर मुखवाली इन विंध्यवासिनी के समीप सदा शिव विराजित रहते हैं।

पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्र में घनघोर घना जंगल (वन) होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनी का वनदुर्गा नाम भी पड़ा।

विंध्यांचल देवी ध्यान स्त्रोत :-

नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भसम्भवा|
ततस्तो नाश यष्यामि विंध्याचल निवासिनी || 

||श्री विंध्यवासिनी माता स्तोत्रम|| 

निशुम्भशुम्भमर्दिनी, प्रचंडमुंडखंडनीम । 
वने रणे प्रकाशिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||1|| 
त्रिशुलमुंडधारिणीं, धराविघातहारणीम। 
गृहे गृहे निवासिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||2|| 
दरिद्रदु:खहारिणीं, संता विभूतिकारिणीम | 
वियोगशोकहारणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||3|| 
लसत्सुलोललोचनां, लता सदे वरप्रदाम | 
कपालशूलधारिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||4|| 
करे मुदागदाधरीं, शिवा शिवप्रदायिनीम | 
वरां वराननां शुभां, भजामि विंध्यवासिनीम ||5|| 
ऋषीन्द्रजामिनींप्रदा,त्रिधास्वरुपधारिणींम | 
जले थले निवासिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||6|| 
विशिष्टसृष्टिकारिणीं, विशालरुपधारिणीम | 

Created On :   25 Aug 2018 6:55 PM IST

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