जब कोई भी उपाय काम न करे तो प्रार्थना की शक्ति का परीक्षण करें!

When any measure does not work, test the power of prayer
जब कोई भी उपाय काम न करे तो प्रार्थना की शक्ति का परीक्षण करें!
जब कोई भी उपाय काम न करे तो प्रार्थना की शक्ति का परीक्षण करें!

डिजिटल डेस्क । आत्म-चेतना को परमात्मा से जोड़ने, उससे वार्तालाप करने और उसमें निवास करने का सर्वोत्तम उपास प्रार्थना है। यह वह उपक्रम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी अंतरात्मा की भूख को मिटाता है। शरीर की भूख अन्न-जल से मिटती है और इससे शरीर को शक्ति भी मिलती है। इसी प्रकार अंतरात्मा की भूख प्रार्थना से मिटती है। जब मनुष्य को किसी भी उपाय से कोई फल प्राप्त नहीं होता, कोई भी उपाय कारगर सिद्ध नहीं होता तो परमात्मा की उपासना से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं। 

एक कथा के माध्यम से इसे समझें

एक शिव मन्दिर का श्रद्धालु पुजारी रोज मन से प्रार्थना करता था। गाँव में एक दिन बाढ़ आई। सबसे पहले मन्दिर का चौकीदार दौड़ा-दौड़ा आया ‘भागो पुजारी जी। पानी बढ़ता जा रहा है।’ थोड़ी देर में गांव के लोग आए कि हमारे साथ चलो, पानी बढ़ रहा है। पुजारी को अपने भगवान पर भरोसा था। वह प्रार्थना करता रहा। स्वयं प्रभु आएंगें तभी वह जायेगा। पानी बढ़ता गया तो एक नाविक आया कि बैठो नाव में। नासमझ पुजारी न बैठा। तब तक पानी और बढ़ चुका था। वह अपने मन्दिर की छत पर चला गया एवं प्रार्थना करता रहा। वहाँ पर भी पानी भरने लगा। 

पानी निरन्तर बढ़ता जा रहा था। तब एक हैलिकॉप्टर आया। हैलिकॉप्टर से राहत कर्मी ने पुकारा ‘‘पकड़ो रस्सी और चढ़ो ऊपर।’’ लेकिन तब भी वह नहीं चढ़ा। प्रार्थना मन से करता रहा। पुजारी ईश्वर को अन्त तक पुकारता रहा कि मेरे प्रभु आएंगें, ये कहते-कहते वह बाढ़ में बह गया। मर कर वह जब स्वर्ग में गया तो अपनी नाराजगी प्रभु से प्रकट करने लगा ‘मुझे बचाने नहीं आये जब कि मैं आपकी प्रतिदिन सच्ची भक्ति करता था’ तब उसे दिव्य वाणी सुनाई दी।

‘‘अरे भक्त ! मैं तुझे बचाने चार बार आया। पहली बार चैकीदार के रूप में, दूसरी बार गांव वालों के साथ, तीसरी बार नाविक के रूप में फिर। अन्त में हैलिकप्टर में बैठकर आया लेकिन तू न पहचान पाया। क्या मैं गले में नाग लटका कर जटा बढ़ा कर शिव का रूप धरकर आता तभी तू पहचानता? उस सब में भी मैं ही बसता हूं वह मैं ही था। तेरे अविश्वास एवं अज्ञान ने ही तुझे डुबाया है। मेरा उसमें क्या दोष है।?’ 

प्रार्थना का अर्थ अपनी आत्मा की उच्चतर शक्ति के पास पहुंचाना होता है। जैसा कि श्री कृष्ण ने कहा है सभी को अपने लिए सर्वोत्तम खोजना होता है। इसमें भटकाव आते हैं, तो आने दीजिए। कोई प्रार्थना का बंधा-बंधाया तरीका नहीं है। प्रार्थना जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है। यह स्वयं को समर्पण कर देना और वास्तविकता को स्वीकार करना है। जब शरीर और मस्तिष्क ब्रह्माण्ड की स्वरलहरियों से सामंजस्य में हों तब प्रेम की भावनाएं उमड़ पड़ती हैं। प्रार्थना मांग नहीं है, सहज भाव से बिना किसी स्वार्थ भाव के परमात्मा को पुकारना है। 

जहां व्यक्ति की सीमा समाप्त होती है, वहीं से परमात्मा की सीमा प्रारंभ होती है। अर्थात जहां हमारे प्रयत्न वांछित परिणाम नहीं ला पाते हैं, तब प्रार्थना करनी चाहिए। जब प्रयत्न की सीमा आ जाए तो प्रार्थना करो। 

- प्रार्थना किससे करें व क्यों करे?  
- उसकी विषयवस्तु क्या हो? 
- स्वरूप क्या हो? 

यह सब सोच कर तय करें। तभी कहावत बनी है कि ईश्वर उन्हीं की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते हैं। 

ऊर्जावान बनाती है प्रार्थना

अस्तित्व कहो या परमात्मा से बढ़कर हमारा कोई सहायक धरती पर नहीं है। इस ईश्वर की शक्ति को पहचानना एवं प्रयोग करने की कला का नाम प्रार्थना है। तभी तो हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा है ईश्वर को हमारे भीतर महसूस करने की शक्ति को प्रार्थना कहते हैं। उन्होंने लिखा है कि ईश्वर के साथ हर काम में मेरी सहभागिता है। मुझे मालूम था कि जितनी योग्यता मेरे पास है अच्छा काम करने के लिए उससे और ज्यादा योग्यता होना जरूरी है। इसलिए मुझे मदद की आवश्यकता है और वह सिर्फ ईश्वर ही दे सकता है। मैने खुद को अपनी योग्यता का सही-सही अनुमान लगाया और इसे पचास फीसदी तक बढ़ा दिया फिर मैं अपने ईश्वर के हाथों सौंप देता था। 

इसी भागीदारी में मुझे वह सारी शक्तियां मिली जिसकी मुझे जरूरत थी और वास्तव में आज भी महसूस करता हूं कि वह शक्ति मुझमें बह रही है। यह प्रार्थना का परिणाम है। तभी तो महात्मा गांधी ने एक जगह लिखा है- ‘प्रार्थना की शक्ति के बिना मैं कभी का पागल हो गया होता।’ 

प्रार्थना का अर्थ अपनी आत्मा की अर्थात ईश्वर की उच्चतर शक्ति के पास पहुंचाना होता है। प्रार्थना जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है। यह स्वयं को समर्पण कर देना और वास्तविकता को स्वीकार करना है। जब शरीर और मस्तिष्क ब्रह्माण्ड की स्वरलहरियों से सामंजस्य में हों तब प्रेम की भावनाएं उमड़ पड़ती हैं। प्रार्थना मांग नहीं है, सहज भाव से बिना किसी क्षुद्र मांग के परमात्मा को पुकारना है। 

जहां व्यक्ति की सीमा समाप्त होती है, वहीं से परमात्मा की सीमा प्रारम्भ होती है। अर्थात जहां हमारे प्रयत्न उचित परिणाम नहीं ला पाते हैं, तब प्रार्थना करनी चाहिए। जब प्रयत्न की सीमा समाप्ति पर आ जाए तो प्रार्थना करो। 

वैसे प्रत्येक व्यक्ति की प्रार्थना अपने तरह की होगी क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के मानसिक बैंक में अलग-अलग प्रकार का धन जमा होता है। मात्र धन की मात्रा ही नहीं, धन का प्रकार भी भिन्न-भिन्न होता है, मन में छिपे संस्कार एवं सोच भिन्न -भिन्न होते हैं। अतः प्रार्थना का तरीका व विषय अलग-अलग होते हैं। 

प्रार्थना करने से स्वयं पर भरोसा आता है, कार्य का भार घटता है, एवं अपनी भूमिका के तनाव से राहत मिलती है। निराशा एवं नकारात्मकता से राहत मिलती हैं। प्रार्थना करने से प्रसन्नता, भक्ति, कृपा, आशीष मिलते हैं जिससे हमारे तनाव घटते है। प्रार्थना पर बहुत वैज्ञानिक शोध हो चुके है। कभी-कभी प्रार्थना दवाओं और शल्य क्रिया से भी ज्यादा शक्तिशाली ढंग से काम करती है। 

प्रार्थना करने से स्वयं में शक्ति पैदा होती है। प्रार्थना जीने का उत्साह बढ़ाती है, यह स्वयं को प्रेरित करती है। प्रार्थना करने से व्यक्ति अस्तित्व से जुड़ता है। उसे अपनी त्वचा एवं शरीर के पार भी स्वयं के होने का बोध होता है। प्रार्थना एक भाव दशा है, अहोभाव है, कृतज्ञता ज्ञापन है, गीत है। यह मन को बल देती है। अवचेतन मन की शक्ति जगाने का पारम्परिक तरीका प्रार्थना है। 

प्रार्थना आपको तैयार करती है। परन्तु प्रार्थना चेतन और अवचेतन में सामंजस्य निर्माण करने वाली होनी चाहिए। तभी प्रार्थना से अच्छे परिणाम प्राप्त हो सकते हैं, तभी उन परिस्थितियों का निर्माण होता है जो आपके लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करती है। जो कुछ भी आपके अवचेतन मस्तिष्क में होता है वही जीवन में व्यक्त होता है। अवचेतन मस्तिष्क उन्नत बुद्धिमता का भण्डार है। 

इस्लाम में भी दुआ मांगने पर बहुत जोर दिया है। चर्च में भी प्रार्थनाएं की जाती हैं। हिन्दु मन्दिरों में इसे पूजा-पाठ के नाम से करते हैं। गुरूद्वारों में भी कीर्तन के रूप में प्रार्थनाएं ही की जाती है। 

प्रार्थना जिव्हा से की जा सकती है। दूसरा मन से यानि एकाग्रता एवं श्रृद्धा से भी की जाती है, लेकिन दिल से यानि समग्रता एवं समर्पणभाव से की गई प्रार्थना ही अधिक शक्तिशाली होती है। परिवार के सभी सदस्य मिलकर प्रार्थना करें तो सदस्यों में परस्पर प्रेम बढ़ता है। तभी घरों में आरती करते समय सभी सदस्यों का उपस्थित होना जरूरी होता था। 

Created On :   26 May 2018 8:50 AM IST

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