चीन से रिश्ते सुधारने के लिए भारत नहीं लाएगा दलाई लामा के प्रति रवैये में बदलाव

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत सरकार ने दलाई लामा को लेकर आ रही उन मीडिया रिपोर्ट्स पर जवाब दिया है, जिनमे कहा जा रहा था कि सरकार ने चीन से रिश्ते सुधारने के लिए नेताओं और कर्मचारियों को दलाई लाम से दूरी बनाए रखने को कहा है। सरकार ने शुक्रवार को यह साफ किया है कि पड़ोसी देश चीन को खुश करने के लिए दलाई लामा को लेकर इसके स्टैंड में कोई बदलाव नहीं आया है। यह भी कहा कि दलाई लामा देश में कहीं भी धार्मिक आयोजन के लिए स्वतंत्र हैं। विदेश मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया, "परमपावन दलाई लामा को लेकर सरकार का पक्ष साफ और स्थायी है। वह श्रद्धेय धार्मिक नेता हैं और भारत के लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं। इस स्टैंड में कोई बदलाव नहीं आया है। भारत में धार्मिक गतिविधियों को लेकर उन्हें पूरी स्वतंत्रता है।"
मोदी सरकार के प्रेस नोट जारी करने की थी खबरे
इससे पहले खबरे आ रही थी कि भारत और चीन के बीच मनमुटाव को कम कर चीन से रिश्ते सुधारने के लिए भारत ने एक और कदम बढाया है। मोदी सरकार ने एक प्रेस नोट जारी करते हुए तिब्बत के अध्यात्मिक गुरु दलाई लामा से नेताओं और कर्मचारियों को दूरी बनाए रखने के निर्देश जारी किए हैं। 22 फरवरी को विदेश सचिव विजय गोखले ने कैबिनेट सचिव पीके सिन्हा की सूचना जारी करते हुए कहा है कि मैजूदा समय में देश के संबंध चीन के साथ बेहद नाजुक दौर में हैं। ऐसे में हमें दलाई लामा के कार्यक्रमों में जानें से बचना चाहिए। गौरतलब है कि चीन दलाई लामा को ख़तरनाक अलगाववादी बताता है। क्योंकि दलाई लामा और उनके समर्थक चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार नहीं करते। सरकार ने ऐसे किसी निर्देश का खंडन विशेष तौर पर नहीं किया।
दलाई लामा के भारत आने की 60वीं जयंती पर कार्यक्रम
बता दें कि इन दिनों दलाई लामा के चीन से भारत आने के 60वीं जयंती के अवसर पर कई कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। इस बाबत एक अप्रैल को दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा, इस कार्यक्रम का नाम ‘थैंक यू इंडिया’ दिया गया है। इसी संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों को मार्च के अंत और अप्रैल महीने की शुरुआत में होने वाले इस कार्यक्रम में न शामिल होने की सलाह भी दी गई है। बता दें कि दलाई लामा तिब्बत स्वतंत्रता आंदोलन पर चीन के हमले के बाद 1959 में भारत आ गए थे। वहीं विदेश मंत्रालय की ओर से जारी किए गए एक बयान में कहा गया, "परमपावन दलाई लामा को लेकर सरकार का पक्ष साफ और स्थिर है। वह श्रद्धेय धार्मिक नेता हैं और भारत के लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं। भारत में दलाई लामा की धार्मिक गतिविधियों को लेकर उन्हें पूरी स्वतंत्रता है।"
चीन और भारत के बीच तनाव की एक वजह है दलाई लामा
20वीं सदी की शुरुआत थी। भारत और चीन से घिरे हुए तिब्बत ने अपनी एक अलग क्षेत्रिय और सांस्कृतिक पहचान को समझना शुरू किया। इसी कोशिश में साल 1912 में तिब्बत ने स्वराज की घोषणा कर दी। 1950 तक तिब्बत में ऐसे ही हालात बने रहे लेकिन 1949 में चीन में "माओ जेडोंग" की सरकार बनी। इस सरकार के आते ही तिब्बत के मुश्किलों का दौर शुरू हो गया। एक साल बाद 1950 में तिब्बत का अधिग्रहण कर लिया गया। इसी के साथ 1951 में दलाई लामा के नेतृत्व में चीन के साथ 17 प्वाइंट्स की एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए जिसके तहत तिब्बत को चीन के अंतर्गत माना गया।
चीन का मानना है की ये दस्तावेज इस बात का सबूत है कि तिब्बत चीन का ही हिस्सा है। वहीं तिब्बतियों का कहना है कि इस दस्तावेज को उनसे मजबूरी में मनवाया गया था। दलाई लामा की मांग सिर्फ ये है कि वे एक स्वतंत्र तिब्बत देखना चाहते है ताकि वो इसकी संस्कृति, भाषा और परंपराओं को सुरक्षित रख सके। आजाद तिब्बत के लिए कई प्रयास करने के बाद भी दलाई लामा को सफलता नहीं मिली और 1959 में उन्होंने भारत आने का फैसला किया।
क्या है तिब्बत का इतिहास
तिब्बत की आजादी के लिए दलाई लामा की कोशिशों पर चीन को भारी एतराज था। चीन का कहना है कि तिब्बत 13वीं सदी में चीन की युआन डायनेस्टी के अंतर्गत रहा है और ये चीन का वो हिस्सा है, जो कभी अलग नहीं हो सकता।
हालांकि अगर इतिहास को पलट कर देखा जाए तो चीन पर युआन डायनेस्टी (मंगोल्स) और मांचू (कूइंग) का राज था। इस दौरान चीनी शासक तिब्बत की सुरक्षा के बदले उनसे आध्यात्मिक मार्गदर्शन लेते थे। जैसे ही 1912 में कूइंग डायनेस्टी खत्म हुई तिब्बत ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
चीन का कहना ये है कि ये सारी उलझनें अंग्रेजों के कारण हुई हैं। दरअसल 1914 के शिमला सम्मलेन में अंग्रेजों ने तिब्बत को एक स्वतंत्र राज्य की मान्यता दे दी थी। इसका मतलब ये था कि तिब्बत के विदेशी संबंधों और बाहरी मामलों को चीन देखेगा और अपने आंतरिक मामलों को तिब्बत खुद संभालेगा।
तिब्बत की सांस्कृतिक क्रांति
चीन एक कम्युनिस्ट देश रहा है जहां लोगों को अपनी मांग रखने की अधिक स्वतंत्रता नहीं है। चीन की ऐसी ही दखलअंदाजी तिब्बत में भी जारी रही। चीन की नीतियों से परेशान होकर तिब्बत ने आखिरकार उसकी तानाशाही को मानने से इंकार कर दिया। इससे नाराज माओ ने अपनी सेना तिब्बत की ओर भेज दी। ये वही समय है जब तिब्बत ने पश्चिम देशों की और मदद की गुहार लगाई थी। लेकिन इन देशों ने मदद करने से मना कर दिया था। इसके बाद तिब्बत ने भारत, यूके और यूनाइटेड नेशंस से सहायता मांगी। भारत और यूनाइटेड किंगडम ने तिब्बत की मदद करते हुए कहा कि ये चिंता का विषय है और हम इस मामले में तिब्बत के साथ हैं।
तिब्बतियों ने हमेशा शांतिपूर्ण तरीके से चीन का विरोध किया है। इसी वजह से तिब्बत को कई देशों का समर्थन भी हासिल है। चीन को हमेशा एक डर रहा है कि अगर तिब्बत को उसने पूरी तरह स्वतंत्र घोषित कर दिया तो हॉंगकॉंग, ताइवान और जिनजियांग इलाके के उइघर मुस्लिम भी अपनी आजादी की मांग करेंगे।
Created On :   2 March 2018 5:45 PM IST