जब 21 सैनिकों ने 8,000 से ज्यादा की फौज को 7 घंटे तक किले पर कब्जा नहीं करने दिया
- इस लड़ाई पर कई किताबों और फिल्में बन चुकी है
- लड़ाई ने देश और विदेश में कई सेनाओं को प्रेरित किया
- सारागढ़ी की लड़ाई की 124वीं वर्षगांठ
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। 12 सितंबर यानी आज सारागढ़ी की लड़ाई की 124वीं वर्षगांठ है। इस लड़ाई ने देश और विदेश में कई सेनाओं को प्रेरित किया है। इस लड़ाई पर कई किताबों और फिल्में बन चुकी है। इस लड़ाई को सैन्य इतिहास में इतना खास क्यों माना जाता है? ऐसी क्या वजह है जो इसे बेहद खास बनाती है? आइए जानते हैं:
सारागढ़ी का युद्ध क्या है?
सारागढ़ी की लड़ाई को दुनिया के सैन्य इतिहास में बेहतरीन माना जाता है। केवल इक्कीस सैनिकों ने 8,000 से अधिक अफरीदी और ओरकजई ट्राइबल के खिलाफ लड़ाई लड़ी और सात घंटे तक किले पर कब्जा नहीं करने दिया। हवलदार ईशर सिंह के नेतृत्व में 36वें सिखों (अब 4 सिख) के सैनिकों ने अपनी अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी, जिसमें 200 ट्राइबल्स की मौत हो गई और 600 घायल हो गए।
पंजाब के मुख्यमंत्री और सैन्य इतिहासकार कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी किताब "द 36th सिख इन द तिराह कैंपेन 1897-98 - सारागढ़ी एंड डिफेन्स ऑफ द समाना फोर्ट्स" में लिखा है कि लड़ाई की शुरुआत में ही इन सैनिकों को पता था कि उनकी मृत्यु निश्चित है, लेकिन वे फिर भी वहां से नहीं हिले। वे आत्मसमर्पण कर सकते थे, फिर भी उन्होंने ऐसा नहीं किया और अद्वितीय बहादुरी का प्रदर्शन किया।"
सारागढ़ी फोर्ट क्यों महत्वपूर्ण था?
सारागढ़ी फोर्ट लॉकहार्ट और फोर्ट गुलिस्तान के बीच कम्युनिकेशन टावर था। ये दोनों किले, नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (NWFP) अब पाकिस्तान में है। महाराजा रणजीत सिंह ने इसे बनवाया था लेकिन अंग्रेजों ने इसका नाम बदल दिया था। सारागढ़ी में आमतौर पर 40 सैनिकों की एक प्लाटून होती थी, लेकिन जिस दिन ये युद्ध लड़ा गया उस दिन वहां केवल 21 सैनिक थे। सारागढ़ी ने उन दो महत्वपूर्ण किलों को जोड़ने में मदद की, जो NWFP के ऊबड़-खाबड़ इलाके में बड़ी संख्या में मौजूद ब्रिटिश सैनिकों के लिए घर था। फोर्ट लॉकहार्ट ब्रिटिश अधिकारियों के परिवारों का भी घर था। 36वें सिख के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हौटन की पत्नी मई 1897 तक किले में थीं।
उस दिन क्या हुआ था?
उस दिन लगभग 9 बजे, सारागढ़ी के संतरी ने धूल की एक मोटी धुंध देखी और जल्द ही महसूस किया कि किले की ओर आदिवासियों की एक बड़ी सेना बढ़ रही है। उन्होंने 8,000 और 15,000 के बीच उनकी संख्या का अनुमान लगाया। आदिवासी दोनों किलों के बीच संचार की लाइनों को काटकर अलग-थलग करना चाहते थे। आदिवासी सेना को देखने के कुछ ही मिनटों के भीतर, 23 वर्षीय सिपाही गुरमुख सिंह ने कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल ह्यूटन को मोर्स कोड के माध्यम से एक संदेश भेजा, जिसमें कहा गया था, "दुश्मन मुख्य द्वार के पास आ रहे हैं... रिइंफोर्समेंट की आवश्यकता है।"
दुर्भाग्य से पठानों ने फोर्ट लॉकहार्ट और सारागढ़ी के बीच आपूर्ति मार्ग काट दिया था। ऐसे में ह्यूटन ने वापस रेडियो किया, अपनी पोजिशन होल्ड करो। सिपाही गुरमुख सिंह ने यह संदेश प्लाटून कमांडर हवलदार ईशर सिंह को दिया। कैप्टन अमरिंदर कहते हैं, "सारागढ़ी के सैनिकों को पता था कि यह उनका आखिरी दिन है, फिर भी वे नहीं झुके।"
और किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
एक ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन जय सिंह-सोहल कहते हैं, "सैनिकों की संख्या न केवल अधिक थी, उनके पास प्रति व्यक्ति लगभग 400 राउंड के साथ सीमित गोला-बारूद था। इतना ही नहीं उस दिन सिग्नलमैन गुरमुख सिंह तीन लोगों का काम अकेले कर रहा था। दरअसल, हेलियोग्राफ कम्युनिकेशन सिस्टम को ऑपरेट करने में तीन लोगों की जरुरत पड़ती थी। एक संदेश भेजता था, दूसरा आने वाले संदेश को दूरबीन के माध्यम से पढ़ता था, और तीसरा उसे लिखता है।
हवलदार ईशर सिंह कौन थे?
हवलदार ईशर सिंह का जन्म जगराओं के पास एक गांव में हुआ था। वह अपनी किशोरावस्था में पंजाब फ्रंटियर फोर्स में शामिल हो गए जिसके बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय विभिन्न युद्धक्षेत्रों में बिताया। 1887 में 36th सिख्स के गठन के तुरंत बाद ईशर को इसमें शामिल किया गया। वह करीब 40 साल के थे जब उन्हें सारागढ़ी पोस्ट की स्वतंत्र कमान दी गई थी। वह शादीशुदा थे लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी।
ईशर सिंह काफी मनमौजी थे। लोग उन्हें लोग बहुत प्यार करते थे, जिनके लिए वह हमेशा एक पांव पर कुछ भी करने को तैयार रहते थे। उनके बारे में एक ब्रिटिश सैन्य इतिहासकार, मेजर जनरल जेम्स लंट ने लिखा, "ईशर सिंह टर्बूलेंट कैरेक्टर के थे। उनके स्वतंत्र स्वभाव के चलते उनका अपने सैन्य वरिष्ठों के साथ कई बार विवाद भी होता था। लेकिन मैदान में वो एक शानदार योद्धा थे।"
21 सैनिकों के परिवारों का पता लगाने वाले सारागढ़ी फाउंडेशन के अध्यक्ष गुरिंदरपाल सिंह जोसन, कहते है कि जमीन का एक बड़ा हिस्सा मिलने के बावजूद, ईशर के परिवार को उनकी मृत्यु के बाद कठिन समय देखना पड़ा। उसकी पत्नी को उसके भाई ने मार डाला, जिसे बाद में काला पानी (अंडमान और निकोबार) भेज दिया गया।
क्या हुआ था युद्ध के आखिरी घंटों में?
सारागढ़ी में सिग्नलर नाइक गुरमुख सिंह सबसे छोटे और 47 वर्षीय नायक लाल सिंह उम्रदराज थे। कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपनी किताब में युद्ध के आखिरी घंटे का वर्णन करते हुए लिखा है: "नाइक लाल सिंह गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे। हिलने-डुलने में असमर्थ, होने के बाद भी वह सचेत थे और अपने हथियार को फायर करने में सक्षम थे। बताया जाता है वह लगातार फायर करते रहे और दुश्मनों को मारते रहे। वहीं गुरमुख ने लड़ाई के बारे में रिपोर्ट करना जारी रखा और फिर सैनिकों को एक-एक करके गिरते हुए देखकर, एक अंतिम संदेश भेजा: "लड़ाई में शामिल होने की अनुमति, श्रीमान।" इसके बाद उन्होंने भी बंदूक थामते हुए कई पठानों को ढेर कर दिया।
Created On :   12 Sept 2021 3:35 PM IST