कुछ ऐसा था क्रांतिकारी भगत सिंह का जीवन...
- आजादी के लड़ाई में भगत सिंह का बलिदान अहम था
- क्रांतिकारी भगत सिंह की जंयती के 111 साल पूरे
- भगत सिंह के शहीद होने के बाद देश में उठी थी आंदोलन की क्रांति
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी भगत सिंह की आज 111 वीं जयंती है। वीर भगत सिंह का जन्म गुलाम भारत के पंजाब प्रांत के बावली (बंगा) गांव में 28 सितंबर को हुआ था। देश पर मर-मिटने की चाहत भगत सिंह के दिल में बचपन से थी। यही वजह की भगत का बचपन से परिवार की बजाए देश से ज्यादा लगाव था। देशभक्ति जूनून ने भगत को वीर बहुत कम उम्र में क्रांतिकारी वीर भगत सिंह बना दिया था। ब्रिटिश शासन की जड़े हिलाने वाले भगत सिंह के जीवन से जुड़ी कुछ बातें...
भगत सिंह सुखदेव और राजगुरू को फांसी देने के बाद अंग्रेजी हुक्कमत के लिए सबसे बड़ी मुश्किल थी तीनों शहीदों के शव को ठिकाने लगाना। चूंकि अंग्रेजी हुक्कमत ये बात जानती थी कि जब लोगों को इस बात का पता चलेगा कि भगत सिंह को उसके साथियों के साथ तय समय से पहले फांसी दी गई थी। देश में एक आंदोलन की आग भड़क उठेगी, हुआ भी कुछ ऐसा ही। एक जेल अधिकारी पर इस फांसी का इतना असर हुआ कि जब उससे कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करें तो उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उसे उसी जगह पर निलंबित कर दिया गया। एक जूनियर अफ़सर ने ये काम अंजाम दिया। पहले योजना थी कि इन सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही किया जाएगा, लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआं उठते देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है। इसलिए जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया। पहले तय हुआ था कि उनका अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाएगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया।
करीब जेल में दो साल गुजरने के बाद भगत सिंह को साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931 की शाम को निर्धारित समय से पहले ही फांसी दे दी गई थी। वजह अंग्रेजों ने इनके साहस के आगे घुटने टेक दिए थे और अंग्रेज सरकार नहीं चाहती थी की फांसी की खबर लोगो तक पहुंचे।
सामान्य तौर पर अंग्रेजों की जेल में बंद सभी कैदियों की जिंदगी मुश्किल थी, लेकिन इन सब के बीच भगत सिंह चेहरे पर मुस्कान लिए हुए जेल में वक्त काट रहे थे। भगत सिंह को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख़्त की 'मिलिट्रिज़म', लेनिन की 'लेफ़्ट विंग कम्युनिज़म' और आप्टन सिंक्लेयर का उपन्यास 'द स्पाई', कुलबीर के ज़रिए भिजवा दें। भगत सिंह जेल की कठिन ज़िंदगी के आदी हो चले थे। उनकी कोठरी नंबर 14 का फ़र्श पक्का नहीं था। उस पर घास उगी हुई थी। कोठरी में बस इतनी ही जगह थी कि उनका पांच फ़ुट, दस इंच का शरीर बमुश्किल उसमें लेट पाए।
भगत सिंह को उनके दो साथी राजगुरू और सुखदेव के साथ फांसी दी जानी थी। ये बात मालूम होते ही जेल में बंद सब क़ैदी चुप हो चले थे।उनकी निगाहें भगत सिंह की कोठरी से गुज़रने वाले रास्ते पर लगी हुई थी। भगत सिंह और उनके साथी फांसी पर लटकाए जाने के लिए उसी रास्ते से गुज़रने वाले थे। एक बार पहले जब भगत सिंह उसी रास्ते से ले जाए जा रहे थे तो पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने आवाज़ ऊँची कर उनसे पूछा था, "आप और आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया। भगत सिंह का जवाब था, "इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं."
इस बात का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता कि भगत सिंह की कोई प्रेमिका थी। कुछ इतिहासकार ये जरूर मानते हैं कि भगत सिंह के परिवार वालों ने 16 साल की उम्र में ही उनकी शादी तय करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं इस बात से नाराज होकर भगत सिंह अपने घर से भागकर कानपुर चले गए थे।
भगत सिंह ने अन्य साथियों के साथ मिलकर ब्रिटिश राज में तानाशाही का विरोध करने के लिए दिल्ली स्थित केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई और इसे अंजाम दिया। 8 अप्रैल 1929 को हुए इस बम कांड के पीछे भगत सिंह का मकसद सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को हिलाना था। भगत सिंह के शब्दों में अंग्रेजी हुक्कमत में बैठे बहरों के कान खोलने के लिए ये धमाका किया गया।
साइमन कमीशन का विरोध करने पर अंग्रेजी हूकूमत ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज किया। जिसमें वह बुरी तरह से घायल हो गए थे और इसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी। लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया। इन जांबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। इस दौरान तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया।
भगत सिंह के मन अंग्रेजों के प्रति गुस्सा बचपन से था, लेकिन 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेजों द्वारा जलियावाला बाग में हजारों लोगों की हत्या के बाद भगत के अंदर आजादी की ऐसी क्रांति उठी जिसने अंग्रेजी हुक्कमत को हिला कर दिया। शायद पूरे इतिहास में मौत का मंजर का ऐसा नही खेला गया हो जो की अंग्रेजो के क्रूरता की बर्बर निशानी है उस बाग़ की दीवारे आज भी उस क्रूरता की चीखे सुनाती है जो की किसी का भी दिल पिघला सकती है। भगत के मन अंग्रेजों की इस कायराना हरकत का बदला लेने की आग उठ रही थी और उन्होंने अंग्रेजी हुक्कमत के खिलाफ विरोध शुरू कर दिया था।
भगत सिंह बचपन से अपने पिता और चाचा से देशभक्ति और अंग्रेजों के अत्याचारो की कहानी सुनते आ रहे थे। जिसके कारण इनके मन में अंग्रेजो के प्रति अपार गुस्सा थी वे बचपन से ही कांतिकारी देशभक्तो की कहानिया पढ़ते थे और अपने देश को आज़ाद करने की भावना इनके अंदर कूट कूट कर भरी हुई थी शायद वही वह कारण था की वे अंग्रेजो के विरोध में हमेशा बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे।
भगत के पिता सरदार किशन सिंह और माता विद्यावती कौर था इन्हें देशभक्ति की भावना अपने घर से ही प्राप्त हुआ था जो इनके पिता और चाचा अपने देश के आज़ादी के लिए प्रयासरत थे और इनके दादा जी तो अपने देश की आज़ादी की खातिर इनको ब्रिटिश स्कूल में पढ़ाने से मना कर दिया था जिसके कारण इनकी पढ़ाई गांव के आर्य समाज के स्कूल में हुआ।
Created On :   28 Sept 2018 3:06 PM IST