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Mumbai News: महाराष्ट्र राज्य वक्फ न्यायाधिकरण के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज, सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने हक के लिए लगाई गुहार

- वक्फ संस्थान में रुचि रखने वाला व्यक्ति अतिक्रमण हटाने के लिए वक्फ अधिनियम की धारा 54 का उपयोग किए बिना बेदखली के लिए मुकदमा चला सकता है
- बॉम्बे हाई कोर्ट ने बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया में देरी का लिया स्वतः संज्ञान
- सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने बॉम्बे हाई कोर्ट में अपने हक के लिए लगाई गुहार
Mumbai News. बॉम्बे हाई कोर्ट ने वक्फ संस्थान की संपत्ति पर अवैध कब्जे को लेकर अहम फैसले में कहा कि वक्फ संस्थान में रुचि रखने वाला व्यक्ति अतिक्रमण हटाने के लिए वक्फ अधिनियम की धारा 54 का उपयोग किए बिना बेदखली के लिए मुकदमा चला सकता है। अदालत ने महाराष्ट्र राज्य वक्फ न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी। न्यायाधिकरण ने आवेदकों को वक्फ संस्थान की संपत्ति को खाली का निर्देश दिया था। न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की एकल पीठ ने कहा कि मुतवल्ली या वक्फ संस्थान में रुचि रखने वाला व्यक्ति स्वयं वक्फ अधिनियम 1995 (अधिनियम) की धारा 83(2) के तहत अतिक्रमणकारी पर मुकदमा करने में सक्षम है। वक्फ अधिनियम की धारा 54 सीईओ को अतिक्रमण हटाने के लिए वक्फ न्यायाधिकरण में आवेदन करने का अधिकार देती है, लेकिन धारा 83 की उपधारा (2) तीन श्रेणियों के व्यक्तियों पर वक्फ न्यायाधिकरण के समक्ष आवेदन करने पर कोई प्रतिबंध या प्रतिबंध नहीं लगाती है। इसलिए मेरे विचार में अतिक्रमण हटाने के लिए आवेदन करने के लिए मुतवल्ली या वक्फ में रुचि रखने वाले व्यक्ति पर किसी प्रतिबंध के अभाव में यह नहीं माना जा सकता है कि वक्फ संस्थान में रुचि रखने वाले व्यक्ति द्वारा दायर किया गया मुकदमा स्वीकार्य नहीं होगा। वक्फ संस्थान में रूचि रखने वालों की ओर से वकील अल्ताफ खान ने याचिका का विरोध किया। यह मामला कमरुद्दीन मस्जिद (जमैयतुल कुबरा) कैंप एक वक्फ संस्थान की संपत्ति को लेकर था। वक्फ संस्थान में रूचि रखने वालों ने वक्फ संस्थान में रुचि रखने वाले मुस्लिम होने का दावा करते हुए आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता उस संपत्ति पर अतिक्रमण कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने (याचिकाकर्ताओं) ने दलील दी कि वे 1960 से किरायेदार के रूप में संपत्ति पर काबिज हैं। न्यायाधिकरण ने वक्फ संस्थान में रूचि रखने वालों के पक्ष में मुकदमा का फैसला दिया और याचिकर्ताओं को संपत्ति पर कब्जा सौंपने का निर्देश दिया। पीठ ने न्यायाधिकरण के फैसले को बरकरार रखा है।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया में देरी का लिया स्वतः संज्ञान
उधर बॉम्बे हाई कोर्ट ने सोमवार को भारत में संभावित दत्तक माता-पिता (पीएपी) द्वारा सामना किए जाने वाले लंबे इंतजार की अवधि को उजागर करने वाली मीडिया रिपोर्टों का स्वतः संज्ञान लिया। मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में संभावित माता-पिता को शिशुओं और छोटे बच्चों को गोद लेने के लिए औसतन साढ़े तीन वर्ष का इंतजार करना पड़ता है। मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति एमएस कार्णिक की पीठ ने गोद लेने की प्रक्रिया में कथित देरी का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार, केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (सीएआरए) और अन्य संबंधित अधिकारियों से जवाब मांगा है। पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. मिलिंद साठे और वकील गौरव श्रीवास्तव को अदालत की सहायता के लिए एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) नियुक्त किया। अदालत ने मामले की अगली सुनवाई 23 जून को रखा गई है। रिपोर्ट के मुताबिक 31 मार्च तक के सीएआरए डेटा में 35 हजार 500 से अधिक पंजीकृत पीएपी थे। जबकि गोद लेने के लिए केवल 2 हजार 400 बच्चे ही उपलब्ध थे, जिनमें से 943 को सामान्य के रूप में वर्गीकृत किया गया था। रिपोर्ट में दोहरी कानूनी प्रणाली और बड़े या विशेष जरूरतों वाले बच्चों की कम गोद लेने की दर पर चिंताओं के बीच गोद लेने के कानूनों पर फिर से विचार करने और प्रोटोकॉल को कारगर बनाने के लिए संसदीय पैनल की सिफारिशों का भी उल्लेख किया गया है।
सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने बॉम्बे हाई कोर्ट में अपने हक के लिए लगाई गुहार
उधर सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश कानू भाऊसाहेब कटके ने अपने हक के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट में गुहार लगाई। अदालत ने केंद्र सरकार को उन्हें दस सप्ताह के अंदर सेवा अवधि के दौरान परिवहन भत्ता (सीए), सत्कार भत्ता, बिजली और पानी शुल्क भत्ता, कोट और गाउन भत्ता और क्वार्टर का बकाया किराए का भुगतान करने का निर्देश दिया है। न्यायमूर्ति ए.एस.चंदुरकर और न्यायमूर्ति एम.एम.साठे के समक्ष कानू भाऊसाहेब कटके की ओर से वरिष्ठ वकील एस.बी.तालेकर और माधवी अय्यपन की दायर याचिका पर सुनवाई हुई। इस दौरान वरिष्ठ वकील एस.बी.तालेकर ने दलील दी कि याचिकाकर्ता मुंबई सिटी सिविल जज के पद से 11 अप्रैल 2010 को सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद केंद्र सरकार ने उन्हें केंद्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण सह श्रम न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया। वह 12 अक्टूबर 2010 से 28 सितंबर 2011 तक उस पद पर कार्यरत रहे। उन्हें सेवा कार्य के एक वर्ष के बाद आवास मिला। जबकि वह 12 अक्टूबर 2010 से 28 सितंबर 2011 तक के बीच नहीं मिले आवास का किराए के हकदार थे, लेकिन यह उन्हें उपलब्ध नहीं कराया गया। वरिष्ठ वकील तलेकर ने कहा कि न्यायाधिकरण के पीठासीन अधिकारी का पद केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव और राज्य सरकार के सचिव के समकक्ष है। याचिकाकर्ता 22 हजार रुपए प्रति माह की दर से वाहन भत्ते का हकदार थे। उसे कार के बदले में केवल 6 हजार रुपए प्रति माह प्राप्त करने की अनुमति थी। सेवानिवृत्ति के दो साल बाद भी याचिकाकर्ता को बकाया राशि नहीं मिली है। उन्होंने याचिकाकर्ता को मकान किराया भत्ता के रूप में मामूली राशि मिली थी। वह 11 अप्रैल 2015 को न्यायाधिकरण के पीठासीन अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त हुए। उनके सेवानिवृत्ति से कुछ महीने पहले उन्हें 2 लाख 22 हजार 494 रुपए के परिवहन भत्ते के बकाया की वसूली का नोटिस मिला। जबकि पीठासीन अधिकारी कार के बदले वाहन भत्ता पाने के हकदार हैं। हालांकि पीठासीन अधिकारी को कार के बदले वाहन भत्ता देने का प्रस्ताव 2008 से लंबित है। जबकि संबंधित मंत्रालय द्वारा यह घोषित किया गया था कि वाहन भत्ते के बारे में जल्द ही आदेश जारी किया जाएगा, लेकिन ऐसा कोई आदेश जारी नहीं किया गया। पीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए निर्देश दिया कि वे (केंद्र सरकार) आज से छह सप्ताह की अवधि के भीतर जिला न्यायाधीश के पद के लिए स्वीकार्य सभी सुविधाओं को लागू करके याचिकाकर्ता को देय भत्तों के बकाया की गणना करें और बकाया राशि का भुगतान उन्हें चार सप्ताह की अवधि के भीतर किया जाना चाहिए।
Created On :   5 May 2025 8:49 PM IST