- Home
- /
- राज्य
- /
- महाराष्ट्र
- /
- नागपुर
- /
- रेडलाइट एरिया की दास्तां - सैक्स...
Nagpur News: रेडलाइट एरिया की दास्तां - सैक्स वर्कर्स के बच्चों को मुख्य धारा में लाने का साहस

- स्नातक व इंजीनियरिंग की शिक्षा लेकर हुए सक्षम
- बाप का नाम देने कोई नहीं होता तैयार
Nagpur News. चंद्रकांत चावरे | विवाहिता के लिए मां बनना दुनिया का सबसे बड़ा सुख होता है। वहीं एक वर्ग ऐसा भी है, जहां मां बनना अभिशाप बन जाता है। यहां बात कर रहे वारांगनाओं की। वारांगनाएं मां बनीं तो उनके बच्चों को बाप का नाम नहीं मिल पाता। वारांगनाओं के बच्चे शिक्षा, स्वास्थ्य समेत समाज की मुख्यधारा से जुड़ नहीं सकते। समाज उन्हें स्वीकार करने में संकोच करता है। कुछ दशक पहले तो वारांगनाओं के बच्चों को पूरी तरह नकार दिया जाता था। एक व्यक्ति ने उनके दर्द को समझा। उन्होंने एक स्वयंसेवी संस्था तैयार की। इस संस्था अंतर्गत एक आश्रम शुरू किया। दानदाताओं को जोड़ा और वारांगनाओं के बच्चों को गोद लेना शुरू किया। 37 साल में 70 बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य समेत सभी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करा दीं। उन्हें सामान्य जीवनशैली में लाकर मुख्य धारा से जोड़ा। उनमें से 6 लड़कियों व 3 लड़काें का विवाहोकरा दिया।
स्नातक व इंजीनियरिंग की शिक्षा लेकर हुए सक्षम
नागपुर के रेडलाइट एरिया गंगाजमुना मे कोई वारांगना मां बनती है तो उसके पास अपने बच्चे को देने के लिए बाप का नाम नहीं होता। बाप का नाम देने के लिए संबंधित मुखिया उनसे पैसे मांगते हैं। इतना ही नहीं उनके बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नसीब नहीं होतीं। उन बच्चो की जहां कहानी शुरू होती, उसी माहौल में परवरिश और वैसे ही हालातों में जीवन की गाड़ी चलती है। एक व्यक्ति रामभाऊ इंंगाेले (67) को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने 1988 में आम्रपाली उत्कर्ष संघ की स्थापना की। इसके अंतर्गत विमलाश्रम में वारांगनाओं के बच्चों को गोद लेकर रखा जाने लगा। 37 साल में विमलाश्रम में 35 लड़कियाें व 35 लड़कों को मुख्य धारा में लाया गया है। उनकी शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण आदि की जिम्मेदारी उठायी गई। यह बच्चे बारहवीं, स्नातक, इंजीनियरिंग तक पढ़कर अपने पैरों पर खड़े हुए है। अधिकतर ने समय के साथ अपना घर संसार बसा लिया है। 6 लड़कियों का विवाह विमलाश्रम में हुआ है। वर्तमान में यहां 16 बच्चे हैं। जो पहली कक्षा से 12 वीं तक की शिक्षा ले रहे है। 70 बच्चे जिस दुनिया से बाहर आये वे अब समाज की मुख्य धारा से जुड़ चुके हैं।
बाप का नाम देने कोई नहीं होता तैयार
रेड लाइट एरिया गंगा-जमुना से जुड़े हजारों किस्से-कहानियां हैं। कोई शौक से देहव्यवसाय के धंधे में नहीं आता। मजबूरी उन्हें यहां तक ले आती है। अधिकतर मजबूरी तो पेट की आग से जुड़ी होती है। कुछ ऊंचे ख्वाब पूरे करने दलालों के चंगुल में फंसकर इस दलदल में समा जाती हैं। इस दलदल में रहकर कुछ वारांगनाएं मां बन जाती हैं। मां अपने बेटे-बेटी के बारे में यह भी सोचती हंै कि वह अपने बच्चों को इस नर्क में नहीं रखना चाहती। मां बनने के बाद बच्चे काे चाहिए पिता का नाम। वारांगनाओं के बच्चों को बाप का नाम देने के लिए कोई तैयार नहीं होता था। इसके लिए सौदेबाजी होती थी। उन्हीं के समूह में से ही कोई एक तैयार होता था। वह बाप का नाम देने के बदले 5-10 हजार रुपए की मांग करता था। मजबूरी में यह रुपए देकर बाप का नाम खरीदा जाता था। हालांकि अब बाप नहीं होने पर मां का नाम दर्ज कराया जाता है। तमाम समस्याओं का हल निकालने के लिए वारांगनाओं के पास विमलाश्रम ही उम्मीद की किरण होती है।
पहले हुआ विरोध, दो साल बाद मिला प्रतिसाद
1980 में तत्कालीन सांसद जांबुवंतराव धोटे ने गंगाजमुना बस्ती बचाने के लिए आंदोलन किया था। धोटे से रामभाऊ इंगोले प्रभावित हुए। उन्होंने इस बस्ती के हालात देखे तो अनेक मासूम और मायूस चेहरे दिखाई दिए। शिक्षा, स्वास्थ्य समेत मुख्यधारा से दूर बच्चों का कोई भविष्य नहीं। वारांगनाओं की बेटियां उस दलदल से निकलना चाहती थीं, लेकिन समूह और मुखिया उन्हें बाहर नहीं निकलने देना चाहते थे। यह बेटियां उनके लिए भविष्य में कमाई का जरिया बनने वाली थीं। बेड़ियों में जकड़ी बेटियां व वारांगनाएं दूर भागना चाहते थे, लेकिन यह मुमकिन नहीं था। इस दर्द को समझकर इंगोले ने वारांगनाओं के बच्चों को मुख्य धारा से जोड़ समाज में शामिल करने का निर्णय लिया गया। पहले तो इसका जमकर विरोध हुआ। दो साल बाद 1990 में एक वारांगना ने हिम्मत दिखाई और अपने बच्चे को संस्था को सौंप दिया। इसके बाद सिलसिला चला और अब तक 70 बच्चों का भविष्य संवारा गया।
Created On :   26 May 2025 7:28 PM IST