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सख्त सजाएं देने के बावजूद अनियंत्रित हो चुकी है दहेज की बीमारी- अमीर भी बाज नहीं आ रहे
डिजिटल डेस्क, औरंगाबाद। बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद खंडपीठ के न्यायमूर्ति भरत पी देशपांडे ने कहा कि समय-समय पर अदालतों ने सख्त सजाएं सुनाईं। इसके बावजूद, बड़ी संख्या में दहेज प्रताड़ना के मामले अदालतों में आ रहे हैं। लालच का व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। यहां तक पत्नी के गरीब परिजनों से भी अमीर व्यक्तियों द्वारा दहेज की मांग अनियंत्रित रूप ले चुकी है। एकल पीठ ने पिछले हफ्ते नांदेड़ की निचली अदालत के फैसले को खारिज करते हुए उक्त टिप्पणियां कीं, जिसमें एक महिला के माता-पिता के दहेज की मांग को पूरा करने में विफल रहने पर पति और ससुराल वालों को उसके साथ लगातार दुर्व्यवहार किए जाने, सताए जाने के आरोपों से बरी कर दिया गया था। यहां तक कि महिला ने प्रताड़ना से तंग आकर आग लगाकर खुदकशी कर ली थी।
आरोपी अमीर है, दहेज क्यों मांगेंगे; यह क्या तर्क हुआ
उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायाधीश की भी खिंचाई की जिन्होंने कहा था कि चूंकि आरोपी मृतक के माता-पिता की खराब स्थिति से अवगत थे, इसलिए उनके दहेज की मांग का कोई सवाल ही नहीं था। इस तरह के कमजोर आधार पर माता-पिता के साक्ष्य को खारिज करना स्पष्ट रूप से स्थापित सिद्धांतों और कानून के प्रस्तावों के खिलाफ है। सत्र न्यायाधीश ने दहेज मामले का फैसला करते समय विचार योग्य सुलझे हुए धागों को भी नहीं देखा और एक गलत निष्कर्ष पर पहुंच गए। उच्च न्यायालय ने मामले को वापस सत्र न्यायाधीश, नांदेड़ को भेजा कि वे पक्षकारों को नए सिरे से सुनें और मामले को याचिका प्राप्त होने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर तय करें। उन्होंने सभी आरोपियों को 22 अगस्त को सेशन कोर्ट नांदेड़ में पेश होने का भी आदेश दिया।
यह है प्रकरण
न्यायमूर्ति देशपांडे ने पीड़िता के पिता द्वारा दायर एक आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन में उक्त फैसला सुनाया, जिसकी जून 2001 में सरकारी अस्पताल में 97 प्रतिशत जलने के कारण मृत्यु हो गई थी। आवेदक के पिता पुलिस कर्मी किसन बोकारे ने एड. ओम माहेश्वरी जाधव और पी.आर. कट्नेश्वरकर के माध्यम से आरोप लगाया कि उनकी बेटी के साथ उसके पति और ससुराल वाले दुर्व्यवहार करते थे और उसे परेशान किया क्योंकि वे उनकी दहेज की मांग को पूरा नहीं कर सके। मार्च 2004 में सत्र अदालत ने आरोपी को बरी करते हुए मृतक के मृत्युपूर्व बयान पर भरोसा किया जिसमें उसने पुलिस अधिकारी से कहा था कि उसने पेट का दर्द सहन करने में असमर्थ होने के कारण आत्महत्या का प्रयास किया था और उसकी मौत के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं था।
मृत्युपूर्व बयान और उसकी परिस्थितियों की बारीकी से जांच क्यों नहीं की गई
न्यायमूर्ति देशपांडे ने कहा कि मृत्युपूर्व बयान डॉक्टर द्वारा अधिकृत नहीं था और पुलिस अधिकारी ने डॉक्टर से पूछताछ नहीं की थी कि क्या मरीज बयान देने की स्थिति में था? और क्या उसकी मानसिक स्थिति सही थी? इसलिए प्रक्रिया के अनुसार मृत्युपूर्व बयान दर्ज नहीं किए जाने से उस पर विचार नहीं किया जा सकता। उन्होंने साथ ही कहा कि यही नहीं, उसकी शादी से तीन साल की अवधि के भीतर उसके शरीर पर इस तरह की अनेक चोटें बनी थीं। इसके अलावा उक्त हादसे से पहले भी मृतक के माता-पिता आरोप लगाते रहे थे कि दहेज की मांग को लेकर उसके साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है। इसलिए, इस तरह के विवाद को धारणाओं और अनुमानों के तुच्छ आधार पर खारिज करना बिल्कुल भी उचित नहीं है। ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए पीठ ने कहा कि इस प्रकार, सभी आरोपियों को इन आधारों पर बरी करने से न्याय का गर्भपात हो गया। मृतक और उसके माता-पिता को उक्त फैसले का सामना करना पड़ा, इसलिए हस्तक्षेप आवश्यक है।
Created On :   10 Aug 2022 7:12 PM IST