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अंग्रेजी सोचने-समझने की भाषा हो सकती है, महससू करने की नहीं
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रो रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि कोरोना काल के दौरान भाषाई पत्रकारिता में एक नई सभ्यता का जन्म हुआ है। इस दौर में डिजिटल मीडिया क्षेत्रीय अखबारों का सबसे बड़ा सहयोगी बनकर सामने आया है। डिजिटलाइजेशन ने पत्रकारों और पत्रकारिता को एक नई ताकत दी है।
प्रो शुक्ल ने यह बात आईआईएमसी द्वारा ‘भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का भविष्य’ विषय पर आयोजित वेबिनार में बतौर मुख्य अतिथि कही। उन्होने कहा कि भाषाई पत्रकारिता का सीधा संबंध क्षेत्रीय आकांक्षाओं से है। क्षेत्रीय पत्रकारिता का स्वरूप जनता और परिवेश की बात करता है। इसलिए उसका प्रसार बढ़ रहा है।
‘थिंक ग्लोबल, एक्ट ग्लोबल’ की चर्चा करते हुए प्रो शुक्ल ने कहा कि डिजिटल माध्यमों के सहयोग से भाषाई पत्रकारिता ने स्थानीय गतिविधियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है। उन्होंने कहा कि अंग्रजी इस देश में सोचने-समझने की भाषा तो हो सकती है, लेकिन महसूस करने की नहीं। और जिस भाषा के जरिए महसूस नहीं करते, उस भाषा के जरिए आप लोगों को प्रभावित नहीं कर सकते। भाषाई अखबार जनमत बनाने और लोगों में सही सोच पैदा करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम हैं।
Created On :   14 Sept 2021 7:56 PM IST