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दादी सुशीलादेवी जलती रहती है चिता और करती रहतीं हैं भजन
डिजिटल डेस्क, नागपुर। दादी सुशीलादेवी संत सहजराम दरबार की प्रमुख दादी सुशीलादेवी की आंखों की रोशनी 6 वर्ष की उम्र में ही चली गई थी। भालदारपुरा में उनके घर के पास सिंधी समाज का दरबार था। 12 वर्ष की आयु से वे दरबार से जुड़ गई थी। हालांकि सिंधी भाषा समझ नहीं आने पर भी वह भजन-पूजन में रुचि लेने लगी। धीरे-धीरे भजन भी गाने का मौका मिला। इसका लाभ यह हुआ कि भजन गायिका के रूप में दूसरे शहरों के दरबारों में भी उन्हें आमंत्रित किया जाने लगा।
एक बार दादी सुशीलादेवी को रायपुर के दरबार में आमंत्रित किया गया था, जहां उनकी मुलाकात भुसावल के बरहानपुर निवासी संत सहजराम से हुई। संत सहजराम की आंखों की रोशनी कम थी। लोगों ने कहा कि दोनों की आवाज मिल जाए तो जीवन संवर जाएगा। दादी सुशीला के भजन गायन से संत सहजराम काफी प्रभावित हुए। दो-तीन माह बाद पुन: रायपुर दरबार दोनों की भेंट हुई। संत सहजराम ने दादी सुशीला के सामने प्रस्ताव रखा कि साथ मिलकर कीर्तन करते हैं। आप हमारे साथ चलो। इस पर लोगों ने कहा कि साथ रहना है तो विवाह कर लो।
76 शहरों में सत्संग-कीर्तन
आखिरकार 21 वर्ष की आयु में दादी सुशीला ने संत सहजराम से विवाह कर लिया और नागपुर में आकर नए जीवन की शुरुआत की। जरीपटका के कुंगु कॉलोनी में रहते हुए संत दंपति ने दिल्ली, मुंबई से लेकर देश के करीब 76 शहरों में सत्संग-कीर्तन प्रस्तुत किए। संत सहजराम को रामायण, गीता, गुरु ग्रंथ साहब, सूफी वाणी कंठस्थ थे।
सपना रहा अधूरा
कुंगु काॅलोनी से आहूजानगर में संत दंपति ने नया आशियाना बनाया। संत सहजराम ने दरबार का निर्माणकार्य भी शुरू कर दिया था, लेकिन उनका सपना अधूरा रहा। 10 नवंबर 1993 को वे चल बसे। उनके देहावसान के बाद दादी सुशीलादेवी ने दादी सुशीला संत सहजराम दरबार साकार किया।
नारा दहनघाट पर कीर्तन
दादी सुशीलादेवी ने 15 साल पूर्व एक अनोखा प्रयोग शुरू किया। कार्तिक एकादशी को सुबह दादी नारा दहनघाट पर भजन-कीर्तन की गंगा बहाती है। एक ओर चिता की अग्नि जलती रहती है और दूसरी ओर भजन गूूंजता है। बड़ी संख्या में बच्चों से लेकर महिला-पुरुष कीर्तन का आनंद उठाते हैं।
Created On :   14 Feb 2020 10:44 AM IST