हाईकोर्ट का आरबीआई से सवाल- क्यों बदला नोट-सिक्कों का आकार

High Court question to RBI - why changed the size of note and coins
हाईकोर्ट का आरबीआई से सवाल- क्यों बदला नोट-सिक्कों का आकार
हाईकोर्ट का आरबीआई से सवाल- क्यों बदला नोट-सिक्कों का आकार

डिजिटल डेस्क, मुंबई। बांबे हाईकोर्ट ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) से जानना चाहा है कि ऐसी क्या जरुरत आन पड़ी थी कि उसे नोटों व सिक्कों के आकार-प्रकार में बदलाव करना पड़ा? हाईकोर्ट ने यह सवाल नेत्रहीनों को नई नोटों व सिक्कों के बदले आकार के चलते हो रही परेशानी को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान किया। नेशनल एसोसिएशन फार ब्लाइंड (नैब) ने अधिवक्ता उदय वारुंजकर के माध्यम से इस विषय में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है। गुरुवार को मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नांदराजोग व न्यायमूर्ति एनएम जामदार की खं़डपीठ के सामने यह याचिका सुनवाई के लिए आयी। याचिका पर गौर करने के बाद अदालत ने कहा कि कई सदियों तक नोट व सिक्कों का आकार एक जैसे रहता है, आखिर नोटों की खासियत व सिक्कों का आकार बदलने की जरुरत क्यों महसूस होती है? ऐसा सिर्फ हमारे देश में ही होता है। खंडपीठ ने कहा कि सरकार ने 10 रुपए, 20 रुपए, पचास रुपए, सौ रुपए तक की नोटों का आकार बदला है। आखिर ऐसा क्यों किया गया है ? नोट बदले गए लेकिन कम से कम उसका आकार तो एक जैसा रखना चाहिए था। खंडपीठ ने कहा कि हमें यह बात सच नहीं लगती कि सरकार को फर्जी मुद्रा के चलन को रोकने के लिए नोट बदलने पड़ते हैं। अगली सुनवाई के दौरान आरबीआई हमें बताए की उसकी ऐसी क्या बाध्यता थी जिसके चलते उसे नोटों व सिक्कों का आकार बदलना पड़ा? इससे पहले याचिकाकर्ता की ओर से पैरवी कर रहे अधिवक्ता उदय वारुंजेकर ने कहा कि आरबीआई की ओर से जारी किए गए 10 रुपए, 50 रुपए व सौ रुपए के नोटों को पहचानने में दिक्कते आ रही हैं। नए सिक्कों को भी पहचानने में नेत्रहीन कठिनाई महसूस कर रहे हैं। इसलिए आरबीआई को नोटों में ऐसी व्यवस्था करने को कहा जाए जिससे नेत्रहीनों को नोट पहचानने में दिक्कत न आए। खंडपीठ ने फिलहाल मामले की सुनवाई दो सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी है।  

दहेज न लेने का घोषणा पत्र’ न देने का अर्थ नहीं कि उसने दहेज लिया ही है

दहेज न लेने का घोषणापत्र देने में विफलता का मतलब यह नहीं है कि किसी ने दहेज लिया ही है। बांबे हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में इस बात को स्पष्ट किया है। मामला दहेज न लेने का घोषणापत्र न दे पाने के चलते नौकरी से वंचित किए गए निलेश पासरकर से जुड़ा है। निचली अदालत में क्लर्क पद की रिक्त जगहों के लिए जुलाई  2013 में विज्ञापन जारी किया गया था। परीक्षा व साक्षात्कार के बाद पासरकर को साल 2014 में पद के लिए योग्य पाए जाने पर उसे  मुंबई सिटी सिविल कोर्ट में नियुक्ति के लिए नियुक्ति पत्र भी जारी कर दिया गया। इस दौरान उसे दहेज न लेने का घोषणापत्र देने के लिए कहा गया। घोषणापत्र में पत्नी, ससूर व पिता के हस्तक्षर को अनिवार्य किया।इस बीच शादी के तुरंत बाद पत्नी से अनबन होने के चलते पासरकर दहेज न लेने का घोषणापत्र देने में असमर्थता जाहिर की। पासरकर ने साफ किया कि उसकी पत्नी ने उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है। इसके चलते पासरकर को हाईकोर्ट के नवंबर 2005 के परिपत्र के आधार पर नियुक्ति के लिए अपात्र ठहरा दिया गया। इस संबंध में जारी की गई नोटिस के खिलाफ पासरकर ने अधिवक्ता सतीश तलेकर के मार्फत हाईकोर्ट में याचिका दायर की। न्यायमूर्ति अकिल कुरेशी व न्यायमूर्ति एसजे काथावाला की खंडपीठ के सामने याचिका पर सुनवाई हुई। मामले से जुड़े दोनों पक्षों को सुनने के बाद खंडपीठ ने दहेज न लेने के घोषणापत्र में पत्नी, ससूर व पिता के हस्ताक्षर की नियम को न्यायसंगत मानने से इंकार कर दिया। खंडपीठ ने कहा कि यदि किसी शख्स की शादी के बाद नियुक्ति पत्र मिलता है और कुछ समय बाद पति-पत्नी के रिश्ते में कड़वाहट आ जाती है तो पत्नी निश्चित तौर पर घोषणापत्र में हस्ताक्षर नहीं करेगी। इसके अलावा यदि लड़की-लड़का में से कोई भी अपने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ शादी करता है तो ऐसी स्थिति में माता-पिता घोषणापत्र पर दस्तखत के लिए राजी नहीं होंगे। इस लिहाज से दहेज न लेने के घोषणापत्र में पत्नी, ससूर व पिता के हस्ताक्षर से जुड़ा नियम न्यायसंगत नजर नहीं आता है। खंडपीठ ने कहा कि यदि कोई इस तरह का घोषणा पत्र नहीं दे पाता तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उसने दहेज स्वीकार किया है। सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट प्रशासन के वकील ने याचिका का विरोध किया। उन्होंने कहा कि निचली अदालत के कर्मचारियों के लिए दहेज न लेने का घोषणापत्र देना अनिवार्य किया गया। इसके अलावा याचिकाकर्ता के चयन को लेकर जारी की गई सूची की अवधि समाप्त हो गई है। वहीं याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि मेरे मुवक्किल ने आपसी सहमति से अपनी पत्नी से तलाक ले लिया है। बुलढाणा की कोर्ट ने इस संबंध में आदेश जारी किया है। मेरे मुवक्किल की पत्नी ने सारे आरोप वापस ले लिए हैं। ऐसी स्थिति में उसके लिए घोषणापत्र दे पाना संभव नहीं है। मामले से जुड़े दोनों पक्षों को सुनने के बाद खंडपीठ ने न्यायालय प्रशासन को दहेज न लेने के घोषणापत्र से जुड़ी शर्त को न्यायसंगत मानने से इंकार कर दिया और याचिकाकर्ता को क्लर्क कम टाइपिस्ट के पद पर नियुक्ति करने का निर्देश दिया। 


 

Created On :   1 Aug 2019 4:29 PM GMT

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